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14 जुलाई ❤️
श्रावण मास की हार्दिक शुभकामनाएं! 🥳
शिव सदा सहायते ❤️ ✨
उस अंतिम चुम्बन के बाद, जब शालिनी ने अपनी नवजात को सौंपा, समय जैसे उसके लिए ठहर गया। कमरे में शून्यता थी, पर हृदय में तूफ़ान। बच्ची की कोमल देह की गर्मी उसकी हथेलियों में अब भी अटकी थी। मन न रोया — वह तो उस दिन मौन विलाप कर चुका था। उस क्षण से उसका संसार उसी रिक्त गोद के चारों ओर घूमने लगा।
शालिनी की गोद अब रिक्त थी, परंतु उसकी छाती पर वह शिशु-स्पर्श अब भी जीवित था। वर्षों बीतते गए, पर वह अंतिम आलिंगन, वह गालों की कोमलता, और वह बालगंध — उसके अंतर में अंकित हो गए थे। वह माँ थी… पर बिना बेटी के। वह स्त्री थी… पर अधूरी। वह प्रत्येक साँझ दीपक के समक्ष बैठती और मौन में अपनी उस संतान का आशीर्वाद माँगती, जिसे उसने स्वयं की कोख से निकाल, किसी और के आँगन में बो दिया था।
अजय उसका सहचर बना रहा, किंतु उनकी गृहस्थी अब मौन के तंतुओं से बुनी जाने लगी थी। दोनों के मध्य अब कोई शिकायत न थी, केवल एक अघोषित पीड़ा का सायास स्वीकृति थी। शालिनी अपने अंतर के तूफ़ान को शब्दों में नहीं ढालती थी — क्योंकि वह जानती थी, कुछ संवेदनाएँ केवल मौन में ही पूरी होती हैं। अजय भी उसकी पीड़ा को जानता था, पर उसका कोई उत्तर नहीं था। वे साथ थे — पर जैसे किसी उजाले और परछाईं की भाँति।
अपनी उस रिक्तता से जूझने के लिए शालिनी ने नगर के एक कन्या विद्यालय में अध्यापिका का दायित्व स्वीकार किया। वहाँ बालिकाओं को पढ़ाना, उनकी चोटी बनाना, कहानियाँ सुनाना — यह सब उसकी आत्मा को किसी अज्ञात सन्तोष से भर देता। हर बच्ची में वह अपनी आर्या को ढूँढ़ने का प्रयास करती। कोई शरारत करती तो उसे लगता — शायद उसकी बेटी भी ऐसी ही होती। कोई गलती करती तो वह अनायास ममता से मुस्कराती।
विद्यालय से लौटने पर वह अकेले में बैठ, कभी-कभी उसी वस्त्र को सहलाती, जिसमें उसने अपनी बेटी को पहली बार लपेटा था। उस वस्त्र में आज भी उस कन्या की गंध थी — या शायद उसकी स्मृति ने ही वह गंध रच ली थी। रातों को जब नींद नहीं आती, वह खिड़की से आकाश की ओर देखती, मानो पूछती — "क्या तू मेरी आर्या को देखता है?" और उत्तर में केवल शून्य की चुप्पी मिलती। @mkhindistory
उधर वह कन्या — जिसे पालकों ने “आर्या” नाम दिया — एक समृद्ध परिवार में पली-बढ़ी। उसकी परवरिश में कोई कमी नहीं रही — उत्तम शिक्षा, संगीत, संस्कृति, और स्नेह भी। पर उसके अंतर में एक अनकहा रिक्त स्थान सदैव बना रहा। वह नहीं जानती थी क्यों, पर उसे लगता — कोई पुकारती है। कोई जो है भी, नहीं भी। कुछ जो छूता है, पर ध्वनि नहीं करता।
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सोलहवें वर्ष में आर्या को अपने जन्म का एक दस्तावेज़ मिला — एक पुराने बक्से में, जहाँ अनचाही सच्चाइयाँ छिपी रहती हैं। उस कागज़ पर लिखा था — "जन्मदाता: शालिनी अजय शर्मा, नागपुर"। वह काँप उठी। उस रात वह अपने कमरे में मौन बैठी रही — घंटों। जैसे किसी ने उसके जीवन का परिचय-पत्र बदल दिया हो। अब वह जानना चाहती थी — न उत्तर के लिए, न प्रश्न के लिए, केवल पहचान के लिए।
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कुछ ही दिनों में उसने शैक्षणिक भ्रमण के बहाने नागपुर की यात्रा का संकल्प लिया। वहाँ उसने विद्यालयों, सामाजिक संस्थानों, और महिलाओं के मंडलों में शालिनी नाम की शिक्षिका को खोजा। अंततः उसे पता चला — एक महिला, जिनका व्यवहार अत्यंत सौम्य है, नगर के एक कन्या विद्यालय में अध्यापिका हैं। उसके हृदय ने उस क्षण धड़कना नहीं, काँपना आरंभ किया।
वह दिन एक शांत वसंत-संध्या थी। विद्यालय में कक्षा समाप्त हो रही थी। आर्या कक्ष के बाहर खड़ी थी — मौन, किंतु अपने ही अस्तित्व की परिधि में डूबी हुई। भीतर से कबीर के दोहे सुनाई दे रहे थे, और वह स्वर उसे विचलित कर रहा था — जैसे वह बचपन में सुनी कोई लोरी हो, जो स्मृति में नहीं, रक्त में बहती हो। शालिनी की आवाज़ में वह आत्मीयता थी, जो आर्या के भीतर किसी बंद द्वार को खोल रही थी।
कक्षा समाप्त हुई। आर्या भीतर गई। शालिनी ने उस किशोरी को देखा — और समय ठहर गया। वह आँखें, वह भौंहें, वह धड़कनें — सब कुछ पहचाना-सा प्रतीत हुआ। शालिनी ने बैठने का संकेत दिया। वह अब भी मौन थी, पर उसकी दृष्टि सजीव हो चुकी थी। आर्या ने काँपते हाथों से वह दस्तावेज़ निकाला और स्वर में विवेक को सहेजते हुए पूछा — “क्या आप मेरी माँ हैं?”
शालिनी का गला भर आया। वह कुछ न कह सकी — केवल हाथ फैलाए। और आर्या उसमें समा गई। वर्षों का सूखा एक ही आलिंगन से तर हो गया। कोई उत्तर नहीं माँगा गया, कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया — केवल दो आत्माएँ थीं, जो पुनः एक-दूसरे में स्फुरित हो रही थीं। वह एक आलिंगन, एक चुम्बन, और दो अश्रुधाराएँ — यही था वह पुनर्मिलन।
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शीर्षक:- संतान का सौदा
कहानी:- शालिनी एक साधारण किंतु आत्मसम्मान से परिपूर्ण स्त्री थी। विवाह के पश्चात वह अपने पति अजय के साथ छोटे से किराए के मकान में रहती थी, परंतु उसके स्वप्न विशाल और भावनाओं से ओतप्रोत थे। संतान की लालसा उसके जीवन की सबसे गहन आकांक्षा बन चुकी थी। अजय एक सरकारी कार्यालय में लिपिक था, ईमानदार किंतु महत्वाकांक्षाहीन। उनकी दाम्पत्य यात्रा मधुर थी, किंतु एक रिक्तता सदैव उपस्थित रहती थी—संतान का अभाव।
विवाह को आठ वर्ष बीत चुके थे, परंतु शालिनी की गोद अब तक सूनी थी। घर-परिवार और पड़ोस की स्त्रियाँ उसके मातृत्व पर प्रश्नचिह्न लगाने लगी थीं। शालिनी दिन-प्रतिदिन मानसिक रूप से विह्वल होती जा रही थी। उसने कितने ही चिकित्सक बदले, मंदिरों में मन्नतें माँगीं, व्रत-उपवास किए, पर परिणाम शून्य। वह अकसर ईश्वर से प्रश्न करती—"क्या मेरी कोख में कोई अपराध है?"
एक दिन शालिनी नगर के प्रसिद्ध स्त्रीरोग विशेषज्ञा डॉ. सुलोचना के पास गई। जाँचों के पश्चात डॉ. सुलोचना ने स्पष्ट कहा—"आपकी कोख पूर्णतया स्वस्थ है, किंतु आपके पति में ही बाधा है।" यह सुनकर शालिनी स्तब्ध रह गई। वह इस तथ्य को अजय को कैसे बताए? यह रहस्य उसके अंतर्मन में एक विषबिज के समान अंकुरित हो गया। अजय से वह यह बात कह नहीं सकी, किंतु वह धीरे-धीरे मानसिक द्वंद्व से घिरती चली गई।
समय बीतता गया। एक दिन उसकी बालसखा सुरभि, जो अब एक धनाढ्य महिला बन चुकी थी, मिलने आई। बातचीत के दौरान सुरभि ने उसकी आँखों की उदासी पढ़ ली। शालिनी ने अपनी पीड़ा प्रकट की। सुरभि ने एक लंबी चुप्पी के बाद कहा—"यदि तुम चाहो तो एक उपाय है... किंतु वह समाज की दृष्टि में वर्जित है।"
शालिनी ने विस्मय से उसकी ओर देखा—"कैसा उपाय?"
सुरभि ने कहा—"एक परिवार है जो किराये की कोख की खोज में है। वे लोग तुम्हें बहुत सम्मान, सुविधा और बड़ी धनराशि देंगे। केवल नौ महीने तुम्हें उनकी संतान को अपने गर्भ में पालना होगा। उसके बाद तुम्हारी गोद खाली होगी, परंतु जीवन भर की आर्थिक स्वतंत्रता मिल जाएगी।"
शालिनी का मस्तिष्क सुन्न पड़ गया। यह संतान का सौदा है, या माँ बनने का एक वैकल्पिक मार्ग? उसकी आत्मा विद्रोह कर उठी—"क्या मातृत्व भी बिकाऊ है?" किंतु दूसरी ओर उसका हृदय बोला—"कम से कम मैं एक बार तो उस भावना को जी सकूँगी—माँ कहलाने की अनुभूति।"
रात्रि में शालिनी ने यह प्रस्ताव अजय को बताया। अजय ने क्षणभर मौन रहकर उसकी आँखों में देखा और कहा—"यदि तुम स्वयं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार हो, तो मैं तुम्हें रोकने का अधिकारी नहीं हूँ।" उसका स्वर संयत था, परंतु आँखों में असहायता का महासागर था।
अगले सप्ताह वह परिवार मिलने आया। धनी, पढ़े-लिखे और शालीन। वे लोग स्वयं संतानोत्पत्ति में अक्षम थे। उन्होंने शालिनी से दबी विनम्रता में निवेदन किया, और स्पष्ट किया कि वे उसे केवल कोख नहीं समझते, अपितु एक देवी मानते हैं जो उन्हें जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपहार देगी।
शालिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। उसे लगा कि शायद यही उसका पुनर्जन्म है—माँ बनने का एक और रूप। कुछ सप्ताहों में कानूनी प्रक्रिया पूर्ण हुई। कृत्रिम गर्भाधान की प्रक्रिया सफल रही। शालिनी अब गर्भवती थी—पर अपनी नहीं, किसी और की संतान से।
गर्भ के साथ ही उसके भीतर भावनाओं का एक समुद्र लहराने लगा। वह शिशु उसके भीतर आकार ले रहा था, वह उसके रक्त से पल रहा था, उसकी धड़कनों के संग धड़कता था। पर वह जानती थी—यह संतान उसकी नहीं होगी। यह केवल एक ऋण है, जो समय के साथ लौटा दिया जाएगा।
हर रात वह उस शिशु से बात करती, उसके साथ अपने स्वप्न बाँटती, उसे लोरी सुनाती, और भीतर ही भीतर टूटती भी थी। उसके गर्भ के साथ ही उसका आत्मबल भी बढ़ रहा था। समाज ने उसकी आलोचना की, कुछ ने उसे "बेची हुई माँ" कहा, पर वह नतमस्तक नहीं हुई। उसके भीतर अब एक परिपक्व नारी जन्म ले रही थी, जो प्रेम और त्याग का वास्तविक अर्थ जान चुकी थी।
गर्भ का आठवाँ महीना चल रहा था, जब शालिनी ने एक दिन चुपचाप अजय से कहा—"मैं यह बच्चा दे नहीं पाऊँगी। यह मेरा बन गया है।" अजय चौंका, पर कुछ नहीं बोला। उसकी चुप्पी में एक गहरा बोझ था।
उस रात्रि शालिनी बहुत रोई। उसे पता था कि उसने एक अनुबंध किया है—न्यायिक रूप से, नैतिक रूप से। पर हृदय किसी कानून को नहीं मानता। उसी रात उसने अपनी डायरी में लिखा—"यदि यह मातृत्व अपराध है, तो मैं बार-बार यह अपराध करना चाहूँगी।"
प्रसव का दिन आया। बच्चा हुआ—एक कन्या। जैसे ही डॉक्टर ने शालिनी की गोद में उसे रखा, उसकी आँखों से अश्रुधारा बह चली। वह बेटी उसकी छाती पर सिमट गई थी। वह उसे छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
किंतु उसी क्षण बाहर वह परिवार खड़ा था, जो वर्षों से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था।
एक रात एक बात लिखेंगे __😊
हर कोई पढ़ सके इतना
साफ लिखेंगे _⚡️
कोई ऐसी बात नहीं अपने
अरमान लिखेंगे ___
हसीन आलम नहीं अपने
हालात लिखेंगे
बहुत शिकायत है हमें तुमसे ऐ जिंदगी
अब तेरे बारे में एक
किताब लिखेंगे ____⚡️
लिखते लिखते खत्म ना हो यह जिन्दगी
एक ही शब्द में पूरी
कायनात लिखेंगे ___
:- मतलबी लोग ✅
/channel/hindistorypdfbook/1739
दर्दजा :- जयश्री रॉय
Dardja :- Jayshri Roy
समय बीतता गया। वृद्धाश्रम में गंगाराम जी और सुशीला देवी ने अनेक बेसहारा वृद्धों की सेवा की, उनकी देखभाल की, और एक पूरे परिवार का निर्माण किया — प्रेम के धागों से बुना हुआ।
विवेक और वाणी धीरे-धीरे समाज में अकेले पड़ते गए। जिन लोगों के सामने उन्होंने माता-पिता को तिरस्कृत किया था, वही अब उनकी उपेक्षा करने लगे। उनके जीवन में वैभव तो था, पर शांति नहीं।
एक दिन वाणी को गम्भीर रोग ने आ घेरा। उपचार में धन खर्च हुआ, पर मन की पीड़ा का कोई उपचार नहीं था। तब उसे अपने जीवन के सारे कटु वाक्य स्मरण होने लगे। सुशीला देवी के आँचल की छाया, गंगाराम जी की करुणा — सब एक छाया की भाँति उसके सम्मुख नाचने लगे।
परंतु अब बहुत विलम्ब हो चुका था।
विवेक ने अनेक बार पिता के पास लौटने का प्रयास किया, परंतु गंगाराम जी ने अब मौन को ही उत्तर बना लिया था।
शिक्षा:- यह कथा हमें यह बोध कराती है कि माता-पिता जीवन का वह आधार हैं, जिनकी छाया में ही संतति पुष्पित-पल्लवित होती है। उनका तिरस्कार केवल एक व्यक्ति का नहीं, समूची मानवता की मर्यादा का हनन है। जिन संतानों के हृदय में श्रद्धा और कृतज्ञता नहीं, वे चाहे जितना धन अर्जित करें, जीवन में शांति नहीं पा सकते। जीवन की संध्या में माता-पिता की आँखें संतान से केवल प्रेम, सम्मान और साथ की याचना करती हैं — और यही उनके लिए सच्चा प्रतिदान है। जो संतान इस सत्य को समझती है, वही अपने जीवन को वास्तव में सफल बना पाती है।
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💠 प्रेरणाप्रद कहानियाँ
शीर्षक:- छाँव की उपेक्षा: एक कलयुगी संतति की कथा
कहानी:- ग्राम खेरापति में गंगाराम जी एक सम्मानित वृद्ध पुरुष थे। उनके मुख से सदैव स्नेह, संयम और शांति की वाणी निकलती थी। गाँव के हर व्यक्ति उन्हें "बाबा" कहकर पुकारता था। जीवन की छह दशक की यात्रा में उन्होंने अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे, परंतु उनके हृदय में कोई कटुता न थी। उनकी पत्नी सुशीला देवी भी उतनी ही करुणामयी, विनीत और धर्मपरायण स्त्री थीं। दोनों ने जीवन के अभावों को धैर्यपूर्वक सहा, एकमात्र पुत्र “विवेक” को उच्च शिक्षा दिलाई, और उसके उज्ज्वल भविष्य हेतु सब कुछ अर्पित कर दिया।
गंगाराम जी लकड़ी बेचकर आजीविका चलाते थे। उन्होंने अपने पसीने की कमाई से विवेक को शहर भेजा, जहाँ वह अभियांत्रिकी की पढ़ाई करके नौकरी में लग गया। समय बीता। विवेक का विवाह नगरीय परिवेश की एक आधुनिक वाणी नामक युवती से हुआ। विवाह के पश्चात् गंगाराम जी को यह आशा थी कि अब पुत्रवधू के आगमन से उनके वृद्ध जीवन में नवसंध्या की कोमल किरणें छिटकेंगी। किंतु यह आशा शीघ्र ही निराशा में परिवर्तित हो गई।
विवेक और वाणी का विवाह अत्यंत धूमधाम से संपन्न हुआ था। गंगाराम जी ने अपनी वर्षों की बचत इस शुभ अवसर पर अर्पित कर दी थी। गहनों से लेकर वस्त्रों तक, सब कुछ में कोई कमी न छोड़ी गई थी। परंतु विवाह के पश्चात् वाणी का व्यवहार धीरे-धीरे बदलने लगा। जहाँ एक ओर गंगाराम जी और सुशीला देवी अपने स्नेह और सरलता से बहू को अपनाने का हर प्रयास कर रहे थे, वहीं वाणी अपने नगरवासिता अहंकार से ग्रस्त होकर ग्राम्य जीवन को हेय दृष्टि से देखने लगी।
वह सास-ससुर के पैर छूने में भी अपमान समझती, रसोई में काम करना तो दूर, उनका हालचाल पूछना भी उसे नागवार लगता। विवेक, जो बचपन में माँ-बाप के चरणों को देवतुल्य मानता था, अब अपनी पत्नी के मोहपाश में इतना बंध गया कि माता-पिता की ओर से आँखें फेर लीं। वह वाणी के हर तर्क को न्यायोचित ठहराने लगा, चाहे वह तर्क कितना ही अनुचित क्यों न हो।
एक दिन वाणी ने स्पष्ट कह दिया — “मैं इस मिट्टी से सने घर में नहीं रह सकती। मुझे आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त नगर का घर चाहिए। और यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं, तो हमें अलग रहना होगा।” विवेक मौन रहा, किंतु उसका मौन ही उसकी सहमति था।
गंगाराम जी और सुशीला देवी के हृदय में मानो किसी ने शूल चुभा दिए। वर्षों की तपस्या और स्नेह का यह प्रतिफल! परंतु उन्होंने विरोध का कोई स्वर नहीं उठाया। उन्होंने विवेक के निर्णय को भी ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया।
कुछ ही समय में विवेक और वाणी शहर लौट गए। उनके जाने के पश्चात् गंगाराम जी का आंगन सूना पड़ गया। जहाँ कभी विवेक की किलकारी गूंजती थी, वहाँ अब सन्नाटा पसरा रहता। सुशीला देवी दिन-रात अपने पुत्र की बाल्यावस्था को स्मरण करतीं और चुपचाप रोया करतीं।
गंगाराम जी स्वयं को खेतों में उलझाए रखते। परंतु बढ़ती उम्र और थकती काया अब उतना साथ नहीं देती थी। कभी-कभी गाँव के बालक उनसे मिलने आते और वह उन्हें आम के पेड़ तले बैठाकर कथा-कहानियाँ सुनाया करते।
किंतु जीवन ने एक और करवट ली।
एक दिन गाँव के एक बालक ने बताया कि शहर में विवेक और वाणी ने वृद्धाश्रम में माता-पिता को भेजे जाने की योजना बनाई है। कारण यह था कि वाणी को अब गंगाराम जी की थोड़ी-बहुत आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, परंतु वह उन्हें अपने घर में नहीं चाहती थी।
गंगाराम जी को यह समाचार वज्र की भांति लगा। परंतु उन्होंने क्रोध नहीं किया, केवल मौन साध लिया। उनकी आंखों में न कोई आँसू था, न शिकायत — केवल एक अपूर्व शांति थी।
जिस दिन विवेक अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजने नगर आया, उस दिन गाँव में आकाश भी उदास था। काली घटाएँ घिरी थीं, मानो सृष्टि स्वयं इस अन्याय पर रो रही हो। गंगाराम जी ने उसे देखकर कोई क्रोध नहीं किया, कोई ताना नहीं मारा, केवल इतना कहा —
"बेटा, यदि यही तुम्हारे जीवन की शांति का मार्ग है, तो हम तैयार हैं। परंतु ध्यान रखना, वृक्ष की छाया छोड़ने वाला पथिक बहुत दूर नहीं चलता।"
सुशीला देवी तो जैसे भीतर ही भीतर टूट चुकी थीं। परंतु उनके मुख पर एक रहस्यमयी मुस्कान थी। उन्होंने विवेक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा —
"तू सुखी रह बेटा। इस संसार में तुझसे अधिक कुछ नहीं चाहा।"
विवेक ने वृद्धाश्रम की गाड़ी बुलवाई। गंगाराम जी और उनकी पत्नी ने बिना किसी आपत्ति के उसमें स्थान ग्रहण किया। गाड़ी जब गाँव की सीमा से बाहर जा रही थी, तब गाँव के कुछ बुजुर्ग और बालक उस गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़े, मानो यह कोई अंतिम यात्रा हो।
नगर का वृद्धाश्रम अत्यंत संकुचित, निर्जन और भावहीन था। वहाँ जीवन तो था, पर जीवंतता नहीं। वहाँ समय ठहर जाता था और आँसू ही संवाद का माध्यम बनते थे।
कहानी जारी....
क्या बोलते हो, यह बुक भेजी जाए क्या ?
Читать полностью…Books PDF अब से सिर्फ यहां पर पोस्ट की जाएगी।
Читать полностью…“जल्दी ही लौटा दूंगा दीदी जी।” उसने मुझे विश्वास दिलाते हुए बोला।
“ठीक है।” मैंने सिर्फ़ इतना ही कहा।
इतने में माँ ने चाय और सैंडविच लेकर कमरे में प्रवेश किया। तब तक शेखर ने 2000 रुपये अपने बटुए में रख लिए थे। पहली बार जब वह पैसे माँगने आया था तब उसके पास सिर्फ़ एक प्लास्टिक का पाउच था लेकिन इस बार उसके पास एक बटुआ था। सचमुच शेखर बहुत कुछ सीख रहा था।
चाय-नाश्ते के बाद शेखर चला गया। एक महीना, दो महीने- इसी तरह पूरा साल धीरे-धीरे बीत गया। शेखर की कोई खबर ना आई। मुझे लगने लगा कि पैसे मिलने के बाद उसका मन बदल गया था। शायद उसकी नीयत खराब हो गई थी। मैंने सोचा, चलो जो होना था सो हुआ, सिर्फ़ 2000 रुपये की ही चपत लगी। पर मुझे ये भी लगा कि उसने मेरा विश्वास तोड़ दिया। मैंने उसे छोटे भाई की तरह समझा पर उसने……..। मैंने तय कर लिया कि आगे से मैं किसी की बातों में नहीं आऊंगी। आज कल की दुनिया में कोई भी विश्वास के लायक है ही नहीं। एक साल के बाद भी शेखर मुझे इसलिए याद आया था क्योंकि मेरे टेप रिकॉर्डर की दूसरी साइड में फिर से वही प्रॉब्लम होने लगी थी जैसी उसने एक तरफ ठीक करी थी।
“शेखर……..! धोखेबाज!” मैंने कहा।
आज फिर रविवार था, मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर गई हुई थी और काफ़ी देर बाद घर लौटी तो देखा कि शेखर माँ के साथ बैठा हुआ है।
“बहुत देर से आया हुआ है। कह रहा था कि दीदी से मिलकर ज़रूर जाऊंगा।कम से कम 3 घंटे हो गए होंगे।” माँ ने कहा और वह उठ खड़ा हुआ।
“ओह! मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर गई थी। पिक्चर देखने।” मैंने उससे कहा।
“आंटी जी ने बताया था, दीदी जी।” उसने फिर से बैठते हुए कहा।
माँ अंदर गई तो उसने एक लिफाफा मेरे हाथ में थमा दिया। “सॉरी दीदी जी, आपके पैसे लौटाने में देर हो गई। मैं परीक्षाओं के लिए दिल्ली गया था और फिर माँ को गुलबर्गा के अस्पताल में लेकर गया था। माँ के पैर की हड्डी टूट गई थी। दीदी जी, मैं यहाँ से चला गया हूँ। अब मुझे गुलबर्गा में ही नौकरी मिल गई है। और एक साल में मेरी इंजीनियरिंग की डिग्री भी पूरी हो जाएगी। फिर मैं सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करूंगा।”
आज मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलूं और उसके पास आज शब्दों की कमी नहीं थी।
“दीदी जी, ईश्वर के अलावा आपने भी मेरी बहुत मदद की है और मैं यह कभी नहीं भूलूंगा। पता नहीं फिर कब मिलेंगे पर अपने छोटे भाई को कभी मत भूलिएगा।”
“शेखर, मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ।” मैं सिर्फ़ इतना ही बोल पाई।
“दीदी जी, मैं हमेशा आपको और आपके आशीर्वाद याद रखता हूँ, जैसा आप ने पहली बार मुझे दिए थे। मैंने अपनी माँ और बहन को भी आपके बारे में बताया था। सब आपके बहुत आभारी हैं।”
“मैं हमेशा तुम्हारे लिए दुआएं करूंगी।” मैंने कहा।
शेखर के चेहरे पर मुस्कुराहट, गर्व, दुःख इत्यादि कई भाव एक साथ झलक रहे थे।
“दीदी जी, अब मैं चलता हूँ।” शेखर अचानक से नीचे झुका और उसने मेरे पैर छू लिए।
“अरे! यह तो मैं भूल ही गया।” उसने अपने बैग से एक मिठाई का डिब्बा निकाला और मुझे थमा दिया। मैंने मुस्कुरा कर उसको देखा। मुझे भी उस पर गर्व हो रहा था।
“बाय, दीदी जी।” यह कहकर वह मुड़ा और चल पड़ा। शेखर लंबा हो गया था। सयाना तो वह था ही, अब आत्मविश्वास भी उसकी चाल में झलकता था।
गेट पर पहुँच कर उसने मुड़ के देखा। उसने हाथ हिलाया और मैंने भी।
शेखर फिर कभी नहीं मिला। हमने घर बदल लिया और उसने शहर।💢💢💢
📌शेखर📌
“दी दी जी!”
मैं एक पल रुकी और पीछे देखा।
“दीदी जी रुकिए!” सोलह सत्रह वर्ष के एक लड़के ने मुझे पुकारा। मैंने रास्ते में उसे आते हुए देखा था। एक झोला लटकाए, हाथ में एक कॉपी पेन लिए, वह लंबे डग भरता मेरी ओर आ रहा था। मैंने स्कूटर घर के आंगन में पार्क किया और गेट तक पहुँची जहाँ वह खड़ा था।
मैंने कहा, “बोलो।”
“दीदी जी, मैं दसवीं क्लास में पढ़ता हूँ। किताबों और फीस के लिए के लिए पैसे जुटा रहा हूँ। आप भी कुछ मदद कर दीजिए प्लीज़ !”
“भीख माँग रहे हो? यह कोई नया तरीका है?”
“नहीं दीदी जी, हम मजबूर हैं, बहुत गरीब हैं। आगे पढ़ना चाहते हैं इसीलिए पैसा इकट्ठा कर रहे हैं।” उसने साफ साफ शब्दों में बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी बात कह दी।
पर मैं बातों से संतुष्ट ना थी। आजकल पैसा माँगने के लिए अपनाए जाने वाले नए-नए तरीकों से मैं काफ़ी परिचित थी।
“क़िस्म-क़िस्म से पैसे माँगने आते हैं लोग। आए दिन ऐसे लोगों से वास्ता पड़ता है और अखबारों में तो ऐसे लोगों के बारे में छपता ही रहता है।” मैंने ऊपर से नीचे उसे देखा और कहा, “और हाँ, अगर पढ़ना ही चाहते हो तो कोई काम धंधा क्यों नहीं करते? पार्ट टाइम नौकरी करके भी तो पढ़ सकते हो।”
“जी दीदी जी, मैं पेट्रोल पंप पर काम करता हूँ, रात को 8 घंटे। मुझे हज़ार रुपये मिलते हैं, उसमें से 800 रुपये मैं घर भेज देता हूँ। घर में माँ और छोटी बहन है।” उसने बहुत स्पष्टता से कहा।
“और तुम्हारे पिता?” मैंने पूछा।
“नहीं हैं। बहुत साल हो गए उनको गुज़रे हुए। मेरी माँ एक प्राइवेट अस्पताल में आया का काम करती है।” उसकी आंखों में करुणा या याचना का भाव नहीं बल्कि एक दृढ़ संकल्प की झलक थी।
“तो कितना पैसा चाहिए तुम्हें?” हाथ से कॉपी लेने का इशारा करते हुए मैंने कहा। शायद मेरे मन में अभी भी बहुत सवाल थे।
“आप कुछ भी दे दीजिए।”
उसने कॉपी में उसके इकट्ठा किए पैसों का पेज खोल दिया। बहुत से लोगों ने उसे पैसे दिए थे..रुपये दिए थे। पैसे तो आजकल मंदिर के बाहर बैठे भिखारी भी नहीं लेते। मैंने देखा कि अधिकतर लोगों ने 10 रुपये दिए थे। कुछ ने 5 भी। एक किसी कालिया साहब ने 30 रुपये दिए थे। पता नहीं किस हिसाब से। शायद उनके पास उस समय 30 रुपये ही छुट्टे होंगे। या शायद उन्हें इस दुबले पतले लड़के से, जो भिखारी तो बिल्कुल नहीं लगता था, कुछ ज़्यादा सहानुभूति हुई होगी।
“कितने रुपये इकट्ठे हुए हैं अभी तक?” मैंने फिर वही सवाल पूछा।
“335 दीदी जी।” उसने फटाक से उत्तर दिया। एक बात तो तय थी कि भीख माँगने वाले इस तरह से हिसाब नहीं रखते। धीरे-धीरे मुझे उसकी मंशा में खोट नज़रआना बंद हो गया।
“तुम्हें कुल कितना चाहिए?”
“कुल 530 चाहिए दीदी जी।” उसने अगले पन्ने पर साफ-साफ लिखा हुआ हिसाब मुझे दिखा दिया।
“तो और कितने घर घूमोगे?” मैंने पूछा।
“आज शाम तक इकट्ठा कर लूंगा दीदी जी। कल फीस भरनी है।” उसने निश्चय कर रखा था।
“अच्छा अंदर आओ।” मैंने उससे कहा। मेरे पीछे पीछे वह अंदर आ गया। घर में मेरी माँ थीं जो कि दोपहर में आराम कर रही थीं। मैं अभी लाइब्रेरी से आई थी क्योंकि आज मेरी छुट्टी थी। मेरी नई-नई नौकरी लगे 6 महीने हुए थे।
“पानी पियोगे?” मैंने उससे पूछा।
“जी दीदी जी।” मैंने उसे धीरे से कहते हुए सुना, “बोतल भर कर दे दीजिए, प्लीज़ !” उसने एक खाली बोतल मेरी तरफ बढ़ा दी।
मैंने उसे बोतल भर कर दे दी और एक गिलास में ठंडा पानी भी दिया। उस दिन बहुत गर्मी थी। मैं समझ नहीं पा रही थी कि कैसे कोई इतनी गर्मी में दर-दर भटक कर इस तरह पैसे इकट्ठा कर सकता है। हम भाई-बहनों को कभी भी रुपये पैसे की तंगी महसूस नहीं हुई थी। पापा एक गजेटेड ऑफ़िसर थे और माँ भी सरकारी विद्यालय में प्रधानाध्यापिका थी। मेरी नौकरी भी बहुत अच्छी थी। मैं स्थानीय कॉलेज में लेक्चरार नियुक्त हुई थी। मुझे अपने भाई का ध्यान आया। 500 रुपये तक तो वह मासिक भत्ता ले लेता था और इधर-उधर से अलग। पढ़ाई के नाम पर तो उसे बिच्छू काट लेता था। नई किताबें तो कमरे में उठापटक करने में ही फट जाती थी। मेरा भाई चिंटू, माँ का लाडला था।
“अरे, तुम्हारा नाम क्या है? मैंने तो पूछा ही नहीं।”
“शेखर, दीदी जी” उसने विनम्रता से कहा।
“शेखर!” मैंने दोहराया। “मेरे भाई का नाम शिखर है। घर पर उसे चिंटू बुलाते हैं।” मैंने मुस्कुरा कर कहा। कितना अजीब संयोग था।
फिर मैंने उसे देखा और कहा, “मैंने सोचा है कि मैं तुम्हारी मदद करूंगी। तुमको बाकी के सारे पैसे दे दूंगी ताकि तुमको दर-दर और भटकना ना पड़े। लेकिन अगर तुम सही इंसान ना निकले तो मैं भविष्य में कभी भी किसी और की मदद ना कर पाऊंगी। चाहे वह कितना भी सच्चा हो। इसलिए मेरा विश्वास मत तोड़ना।”
“दीदी जी, ऐसा कभी नहीं होगा। मैं सच कहता हूँ।” उसने गंभीरता से कहा।
झुण्ड में पले हुए
रास्ते चले हुए,
भीड़ वो बनाते हैं,
आदमी कहलाते है!
आए तो निगाह में
जो खड़े राह में,
तोड़ते सुराख से,
थोड़ी खुराक से,
पेट चलाते हैं,
आदमी कहलाते है!
ये इधर ये उधर,
पड़े हुए तितर बितर,
इनकी किसको फ़िकर
मौन में जिनका ज़िकर,
खामोशियां सुनाते हैं,
आदमी कहलाते है!
जानवर है कौन वो
जान पर भी मौन जो,
आखिरी मुस्कान विस्मृत
असफलताओं की परिणीति,
स्वप्न को जलाते है
आदमी कहलाते है!
जीव जिसका रो रहा है
भाव दाव खो रहा है,
बोझ जिसके सीने लटका
वो कि जो हैं राह भटका,
एड़ियां घिसाते हैं,
आदमी कहलाते है!
पूछताछ जिनकी नहीं
रोक — टोक हर कहीं,
उपहास जिसको प्रसाद है
खुशियां जिसे अपवाद है,
सयाने होते जाते हैं,
आदमी कहलाते है!
भूल गए शिकवा शिकायत,
अपनी इसे माने इनायत,
मांगता खुद की खैर नहीं
अपने अपनों से गैर सही,
सांस जिसको बोझ है
किंतु जीवन बचाते है,
आदमी कहलाते है!
कोई इनकी सुधि ले,
हाल कैसा, पूछ ले,
मौन वो तब भी रहेगा
निश्चय कुछ न कहेगा,
आँख में अश्रु नहीं
किंतु हृदय डुबाते हैं,
आदमी कहलाते है!
#MKHindi@mkhindistory
हर घाव इश्क़ नहीं होता"
लोग कहते हैं — दिल टूटा होगा,
किसी प्यार में धोखा खाया होगा।
पर क्या हर दर्द की यही कहानी होती है?
क्या हर आह में कोई महबूब शामिल होता है?
कभी माँ-बाप की कठोरता से टूटा मन,
तो कभी भाई-बहनों से तुलना बनी उलझन।
कभी दोस्तों की पीठ पीछे की गई बात,
बन जाती है रातों की तन्हा बरसात।
असफल परीक्षाएं, अधूरे ख्वाब,
हर कोने में छिपे हैं अनकहे ज़हर के जवाब।
पर समाज कहता है — इश्क़ में टूटा है दिल,
कभी किसी ने पूछा, क्या बाकी सब कुछ था सहज और मिल?
हर मुस्कुराता चेहरा खुश नहीं होता,
कई बार हँसी के पीछे दर्द रोता।
लोग रिश्तों के नाम पर दर्द को आंकते हैं,
जीवन की गहराइयों को हल्के में टांकते हैं।
कभी आत्म-सम्मान की टूटन,
कभी भविष्य की अनिश्चित गूँज,
ये सब भी तो घाव हैं,
जो समय नहीं, समझ मांगते हैं।
तो ऐ समाज, नज़र बदलो,
हर दर्द का नाम 'प्रेम' न रखो।
लोग जीवन से भी जूझ रहे हैं,
बस मौक़ा मिले, तो टूटे दिल नहीं —
टूटे इंसान भी जुड़ सकते हैं।
आर्या ने कहा, “मैं लौट नहीं सकती… पर क्या मैं कभी-कभी आ सकती हूँ?” शालिनी ने उसे अपनी छाती से लगाकर कहा — “बेटियाँ लौटती नहीं, लौटाया नहीं जाता… वे हृदय में निवास करती हैं।” अजय जब घर पहुँचा, और उस कन्या को देखा — जिसे उसने वर्षों पूर्व केवल स्मृति में सहेजा था — तो वह भी मौन हो गया। उसने शालिनी से कहा, “अब शायद मैं भी पिता हूँ — थोड़ा सही, पर सच्चा।”
उस रात शालिनी ने वर्षों बाद वह गुलाबी साड़ी पहनी — जो आर्या के नाम की गई थी। मंदिर के दीप के सामने बैठकर उसने पहली बार मुस्कराकर प्रार्थना की। आर्या ने जाते समय वह वस्त्र अपने साथ रख लिया — जो जन्म के समय उसकी देह से लिपटा था। वर्षों बाद दो अधूरी आत्माएँ पूर्ण हुईं — बिना अधिकार के, बिना परिभाषा के, केवल प्रेम की भाषा में।
शालिनी की दृष्टि क्षणभर के लिए द्वार की ओर स्थिर हुई—जहाँ वह दंपती प्रतीक्षा में खड़ा था। फिर उसने अपनी गोद में सिमटी नवजात कन्या की ओर देखा। उसका हृदय काँप उठा। क्या वह अपने प्राणों का अंश किसी और को सौंप सकती है? क्या वह वास्तव में संतान का यह सौदा पूरा कर पाएगी? #MKHindi@mkhindistory @mkhindistory
उसने एक दीर्घ श्वास ली, पुत्री को मस्तक से चूमा और भर्राए स्वर में कहा—
"जा बेटी… तुझे वह घर दूँगी, जो मैं तुझे नहीं दे सकती। माँ वह नहीं जो केवल जन्म दे… माँ वह है जो जीवन दे।"
क्या समय शालिनी की कोख का उत्तर लौटा पाएगा?
जानने हेतु हम से जुड़े रहे।
*मदद एक ऐसी घटना है*
अगर करें
तो लोग भूल जाते हैं..
और
ना करें तो
लोग याद रखते हैं..
😇
*बेहद कड़वी सच्चाई*
शहर लखनऊ में बसे उपनगर गोमती नगर में एक बड़े अफसर रहने के लिए आए, जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे। ये बड़े वाले रिटायर्ड अफसर, हैरान - परेशान से, रोज शाम को पास के पार्क में टहलते हुए, अन्य लोगों को तिरस्कार भरी नज़रों से देखते और किसी से भी बात नहीं करते थे।
एक दिन एक बुज़ुर्ग के पास शाम को गुफ़्तगू के लिए बैठे और फिर लगातार बैठने लगे। उनकी वार्ता का विषय एक ही होता था - मैं इतना बड़ा अफ़सर था कि पूछो मत, यहां तो मैं मजबूरी में आ गया हूं, मुझे तो दिल्ली में बसना चाहिए था। और वो बुजुर्ग शांतिपूर्वक उनकी बातें सुना करते थे।
एक दिन जब सेवानिवृत्त अफसर की आंखों में कुछ प्रश्न, कुछ जिज्ञासा दिखी, तो बुजुर्ग ने ज्ञान दे ही डाला...
उन्होंने समझाया - *आपने कभी फ्यूज बल्ब देखे हैं ?*
बल्ब के फ्यूज हो जाने के बाद क्या कोई देखता है कि बल्ब किस कम्पनी का बना हुआ था, कितने वाट का था, उससे कितनी रोशनी या जगमगाहट होती थी ?बल्ब के फ्यूज़ होने के बाद इनमें से कोई भी बात बिलकुल ही मायने नहीं रखती। लोग ऐसे बल्ब को कबाड़ में डाल देते हैं। है कि नहीं ?
जब उन रिटायर्ड अधिकारी महोदय ने सहमति में सिर हिलाया, तो बुजुर्ग बोले -
रिटायरमेंट के बाद हम सब की स्थिति भी फ्यूज बल्ब जैसी हो जाती है। हम कहां काम करते थे, कितने बड़े/छोटे पद पर थे, हमारा क्या रुतबा था, यह सब कुछ भी कोई मायने नहीं रखता।
कुछ देर की शांति के बाद अपनी बात जारी रखते हुए फिर वो बुजुर्ग बोले कि मैं सोसाइटी में पिछले कई वर्षों से रहता हूं और आज तक किसी को यह नहीं बताया कि मैं दो बार संसद सदस्य रह चुका हूं। वो जो सामने वर्मा जी बैठे हैं, रेलवे के महाप्रबंधक थे। वे सामने से आ रहे सिंह साहब सेना में ब्रिगेडियर थे। वो मेहरा जी इसरो में चीफ थे। ये बात भी उन्होंने किसी को नहीं बताई है, मुझे भी नहीं, पर मैं जानता हूं।
सारे फ्यूज़ बल्ब करीब - करीब एक जैसे ही हो जाते हैं, चाहे जीरो वाट का हो 40, 60, 100 वाट, हेलोजन या फ्लड-लाइट का हो, कोई रोशनी नहीं, कोई उपयोगिता नहीं, यह बात आप जिस दिन समझ लेंगे, आप शांतिपूर्ण तरीके से समाज में रह सकेंगे।
उगते सूर्य को जल चढ़ा कर सभी पूजा करते हैं। पर, डूबते सूरज की कोई पूजा नहीं करता।
यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाएगी, उतनी जल्दी जिन्दगी आसान हो जाएगी। कुछ लोग अपने पद को लेकर इतने वहम में होते हैं कि रिटायरमेंट के बाद भी उनसे अपने अच्छे दिन भुलाए नहीं भूलते। वे अपने घर के आगे नेम प्लेट लगाते हैं - सक्सेना/ गुर्जर/ मीणा/ मिश्रा /गुप्ता/सिंह/ मेघवाल/खान/अहमद/फ्रांसिस /जैन/ चौधरी/तिवारी/विश्वकर्मा/वर्मा/रिटायर्ड आइएएस.. पीसीएस.. आईपीएस... रिटायर्ड जज आदि - आदि।
ये रिटायर्ड IAS/RAS/SDM/तहसीलदार/ पटवारी/ बाबू/ प्रोफेसर/ प्रिंसिपल/ अध्यापक/प्रबंधक......कौन-सा पोस्ट होता है भाई ????
माना कि आप बहुत बड़े आफिसर थे, बहुत काबिल भी थे, पूरे महकमे में आपकी तूती बोलती थी पर अब क्या?
अब तो आप फ्यूज बल्ब ही तो हैं।
यह बात कोई मायने नहीं रखती कि आप किस विभाग में थे, कितने बड़े पद पर थे, कितने मेडल आपने जीते हैं।
*अगर कोई बात मायने रखती है:*
• तो वह यह है कि आप इंसान कैसे है...
• आपने कितनी जिन्दगी को छुआ है...
• आपने आम लोगों को कितनी तवज्जो दी..
• पद पर रहते हुए कितनी मदद की...
• समाज को क्या दिया...
*हमेशा याद रखिए*, बड़ा अधिकारी/कर्मचारी बनना बड़ी बात नहीं, बड़ा इंसान बनना बड़ी बात जरूर है।
*इसलिए अच्छे इंसान बनिए और कुढ़ना बंद कीजिए, जिंदगी संवर जाएगी.*
/channel/hindistorypdfbook/1727
जितनी मिट्टी उतना सोना :- अशोक पाण्डे
Jitni Mitti Utna Sona :- Ashok Pandey
गंगाराम जी ने वहाँ भी अपना सौम्य स्वभाव न छोड़ा। वे अन्य वृद्धों को भजन सिखाने लगे, छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाते, और सायंकाल को रामधुन गाते। सुशीला देवी वहाँ भी दूसरों की सेवा में लगी रहतीं।
परंतु उनका मन प्रतिदिन विवेक की स्मृति में डूबता चला गया।
कुछ ही समय में नगर के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक ने वृद्धाश्रम में नि:शुल्क सेवा आरंभ की। वह थे डॉ. गोविंददास, जो कभी गंगाराम जी के ही छात्र रहे थे। उन्होंने जब यह देखा कि उनके गुरुजी वृद्धाश्रम में हैं, तो उन्हें विश्वास ही न हुआ।
उन्होंने गंगाराम जी से आग्रह किया —
"गुरुदेव, कृपया मेरे साथ चलें। यह स्थान आपके योग्य नहीं है। मेरे घर में आपको वो सम्मान मिलेगा जो एक संत को मिलना चाहिए।"
परंतु गंगाराम जी ने नम्रता से उत्तर दिया —
"बेटा, जहाँ तक नियति ले आई है, वहीं से जीवन का सत्य समझना होता है। यदि तू चाहता है मेरी सेवा करना, तो केवल एक कार्य कर — विवेक की आँखें खोल।"
डॉ. गोविंददास ने यह बात गांठ बांध ली। उन्होंने विवेक की पत्नी वाणी से संपर्क किया, और एक योजना बनाई जिससे उनका असली चेहरा समाज के समक्ष उजागर हो सके।
डॉ. गोविंददास ने एक फर्जी संपत्ति विवाद का नाटक रचा, जिसमें उन्होंने यह संकेत दिया कि गंगाराम जी के नाम पर लाखों की जमीन और जेवरात छिपे हुए हैं, और यदि वह अपने माता-पिता को अपनाएँगे तो वह संपत्ति उनके अधीन आ जाएगी।
यह सुनते ही वाणी ने तुरन्त वृद्धाश्रम पहुँचकर सास-ससुर के चरणों में लोट लगा दी। विवेक ने भी पछताने का नाटक करते हुए माफ़ी मांगी और कहा —
"पिता जी, अब मैं आपको लेने आया हूँ। घर चलिए, हम आपके चरणों की सेवा करेंगे।"
गंगाराम जी मौन रहे। उन्होंने एक पत्र लिखा और वृद्धाश्रम के सभी वृद्धों के समक्ष उसका पाठ किया।
वृद्धाश्रम के प्रांगण में सब वृद्धजन एकत्र थे। सामने डॉ. गोविंददास, विवेक, वाणी, गंगाराम जी और सुशीला देवी बैठे थे। शांत वातावरण में गंगाराम जी ने अपनी चिरपरिचित सौम्यता से वह पत्र पढ़ना आरंभ किया —
“प्रिय पुत्र विवेक,
जिस दिन तू जन्मा था, उस दिन हमने अपने जीवन की सबसे बड़ी दौलत पाई थी। तू रोया था, और हम हँसे थे। सोचा था, एक दिन तू हँसेगा और हम गर्व से आँसू बहाएँगे।
परंतु आज जब तू हमारे चरणों में झुकता है, तो उसमें प्रेम नहीं, लालच की गंध है।
बेटा, एक वृक्ष जब फल देता है, तब कुछ लोग उसे पूजते हैं, कुछ पत्थर मारते हैं। तूने क्या किया, यह तू जानता है, पर तू क्या कर सकता था — यह तुझे अभी भी समझना है।
तेरी माता और मैंने तुझे छोड़ नहीं दिया, तूने हमें खो दिया है।
और जहाँ तक उस संपत्ति की बात है, वह केवल प्रेम और आशीर्वाद है, जो अब केवल उसे मिलेगा — जो इसके योग्य होगा।”
छांव अंधेरी :- रमेश गोदावत
Chaanv Andheri :- Ramesh Godawat
/channel/hindistorypdfbook/1611
“यह लो 200 रुपये। अब तुम्हें और कहीं जाने की ज़रूरत नहीं।” उसे सौ रुपये के दो नोट पकड़ाते हुए मैंने कहा।
“धन्यवाद दीदी जी।” वह अब थोड़ा झिझका ।
“दोबारा मिलोगे?”
“दीदी जी ज़रूर मिलूंगा।” उसने कहा और धीमे-धीमे कदमों से गेट के बाहर चला गया।
मैं सोचने लगी कि मैंने गलत किया या सही? माँ को बताऊं या नहीं? फिर सोचा कि जो हो गया और जो कर दिया, ठीक है। फिर भी दिल में सवाल उठता रहा कि वह कोई ठग या चोर तो नहीं था? खैर, मुझे कौन सा किसी को हिसाब देना होता था। पर फिर भी 1991 में 200 रुपये बहुत मायने रखते थे।
मैं इस बात को लगभग भूल ही गई थी। जून के महीने में जब दसवीं के परीक्षा के परिणाम अखबारों में घोषित हुए तो मुझे उस लड़के, शेखर, की याद आ गई। जब से वह रुपये लेकर गया था वह मुझे फिर कभी दिखाई नहीं दिया था। मैंने उससे उस पेट्रोल पंप का भी नाम पूछा था जहाँ पर वह काम करता था। ‘करता भी था या उसने मुझे ऐसे ही कुछ भी बता दिया था’-ऐसा मेरे मन में आया क्योंकि वह दोबारा लौट कर नहीं आया था।
दसवीं कक्षा के परिणाम घोषित हुए एक महीना हो गया था। उस दिन मैं रविवार की छुट्टी का पूरा फायदा उठा रही थी। अपने बाल धोकर, दो अखबार और चाय का प्याला लेकर बाहर बरामदे में बैठी थी।
“दीदी जी!” गेट के बाहर से आवाज आई।
मैंने अखबार हटाकर देखा तो गेट के बाहर वही लड़का, शेखर, खड़ा था। मैं सचमुच हैरान हुई थी। मैंने उसे अंदर आने का इशारा किया।
“दीदी जी नमस्ते! कैसी हैं आप?” उसने बहुत आदर के साथ पूछा।
“नमस्ते शेखर, तुम कैसे हो?”
“अच्छा हूँ, दीदी जी। आपसे मिलना था लेकिन पेट्रोल पंप पर डबल शिफ़्ट की वजह से नहीं मिल पाया।” उसने कहा।
मैं उससे कुछ पूछना चाहती थी लेकिन मेरे पूछने से पहले ही उसने एक न्यूज़-पेपर निकाला और मेरे सामने फैला दिया।
“दीदी जी, मेरा दसवीं का परिणाम। मुझे 83% अंक मिले हैं।” उसने बड़े उत्साह से कहा।
“अरे वाह!” मुझे यकीन नहीं हो रहा था। “शेखर तुमने तो सचमुच कमाल कर दिया!” मैं ख़ुशी से तालियाँ बजाने लगी।
“माँ! माँ!” मैंने कमरे की तरफ मुंह करके आवाज लगाई।
“घर में सब कैसे हैं?” मैंने उससे पूछा।
“सब अच्छे हैं। पेट्रोल पंप के मालिक भी बहुत खुश हैं। मेरी तनख़्वाह भी बढ़ गई है।” उसने जेब से 200 रुपये निकाल कर दोनों हाथों से मेरी तरफ बढ़ा दिए।
“अरे, यह क्या है?” मैंने पूछा।
“दीदी जी, मैं आपका उपकार कभी नहीं भूलूंगा। आप ने मेरी बहुत मदद की। अब यह रुपये मैं आपको लौटाना चाहता हूँ।”
“इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, सच में।” मैंने कहा।
“प्लीज़ दीदी जी,” उसने अपना हाथ पीछे नहीं किया।
मुझे भी लगा यह उसका स्वाभिमान है। मैंने धीरे से पैसे लिए और कई आशीर्वाद उसको दे डाले कि भगवान करे वह जिंदगी में खूब पढ़े-लिखे और तरक्की करे ।
शेखर धीरे धीरे हमारे परिवार में एक जाना पहचाना चेहरा हो गया। कभी-कभार वह घर पर आ जाता था। कभी चाय पी कर या फिर कभी खाना खा कर चला जाता था। वह अब डिप्लोमा इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग करने लगा था। एक बार उसने बातों बातों में मेरा एक छोटा वॉकमैन ठीक कर दिया था फिर एक दिन मैंने उसे अपना सोनी का म्यूज़िक सिस्टम भी ठीक करने के लिए सौंप दिया।
“छोटा सा पुर्जा है, नया लाकर डालना पड़ेगा।” उसने कहा।
“ठीक है, कितने का आएगा?” मैंने उससे पूछा।
“मैं ले आऊंगा दीदी जी।” उसने कहा
उसको इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान की अच्छी समझ हो चुकी थी। ऐसे ही औने-पौने दामों में उसने हमारे घर के कई इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण ठीक कर डाले थे। माँ को भी उसकी काबिलियत पर गर्व होने लगा था। पिताजी भी शेखर की तारीफ करते थे। धीरे-धीरे कब वह दुबला-पतला मासूम सा शेखर बड़ा हो गया, पता ही नहीं चला। उसके बोलने-चलने के ढंग में भी बहुत परिवर्तन आ गया था।
एक दिन शेखर घर आया और मुझसे बोला, “दीदी जी, डिग्री का फॉर्म भरना है। 4000 रुपये चाहिए। मैं शीघ्र ही लौटा दूंगा।”
“4000?” मैंने सवाल किया।
“नहीं तो दीदी जी आप 2000 रुपये ही दे दीजिए। 2000 मैं मालिक से उधार ले लूंगा।” उसने कहा।
“देखती हूँ।” यह कहकर मैं अंदर चली आई और सोचने लगी कि कहीं यह विश्वास दिलाकर धोखा तो नहीं दे देगा। 2000 रुपये एक बड़ी रक़म थी। माँ घर पर ही थीं परंतु मैं उनसे नहीं पूछना चाहती थी। 2000 रुपये के लिए शायद वह राज़ी ना होती। मैंने अपने पर्स से 2000 रुपये निकाले और मुट्ठी में रख लिए। यह भी इत्तेफाक था कि शेखर भी उसी हफ़्ते आता था जब मुझे तनख्वाह मिली होती थी वरना मैं बोल सकती थी कि भाई सच मानो मेरे पास इस समय इतने पैसे नहीं है। और मुझसे झूठ कभी भी बोला नहीं जाता।
मैंने बाहर जा कर दो हजार रुपये उसके हाथ में थमाते हुए बोला, “जल्दी से रख लो शेखर।” पता नहीं मैंने ऐसा क्यों बोला? शायद मैं नहीं चाहती थी की माँ को इसके बारे में पता चले।
उस रात उसका फ़ोन आया था —
ठीक 2:47 AM पर।
मैं जागा नहीं।
फोन बजा,
बंद हुआ,
फिर दोबारा बजा।
फिर… हमेशा के लिए ख़ामोश हो गया।
---
सुबह उठा तो
उसका नाम स्क्रीन पर चमक रहा था —
3 मिस्ड कॉल।
मैंने सोचा,
"फिर कोई फ़िजूल की बहस रही होगी…"
और मोबाइल साइड में रख दिया।
10 मिनट बाद
दोस्त का कॉल आया —
"वो नहीं रही…"
---
क्या?"
सिर्फ यही एक शब्द निकला मुँह से।
और फिर बिल्कुल शून्य।
ना आंसू निकले,
ना गुस्सा,
ना यकीन।
बस एक कंपकंपी थी —
जिसने दिल को भींच लिया था।
मैंने सोचा कोई मज़ाक है,
फिर हँसने की हिम्मत भी नहीं हुई।
क्योंकि अचानक
दिल में एक सिहरन उठी —
“क्या उसने… मरने से पहले मुझे कॉल किया था?”
---
मैं भागा,
उसके घर,
उसकी गली,
उसकी आख़िरी तस्वीर तक।
सब जगह एक ही बात थी —
“वो बहुत देर तक अकेले बैठी रही…
आख़िरी बार किसी को फोन कर रही थी…
किसी को माफ़ करने की कोशिश में थी।”
---
अब मैं हर रात 2:47 पर उठता हूँ।
फोन घूरता हूँ।
दिल करता है,
कभी फिर से वो कॉल आए…
बस एक बार।
---
उसकी यादें अब सिर्फ़
वो तीन मिस्ड कॉल बन चुकी हैं —
जो मैं कभी उठा नहीं पाया।
---
लोग कहते हैं,
"जो गया, उसे जाने दो..."
पर कोई उनसे पूछे —
"जिसने जाने से पहले तुम्हें पुकारा हो,
क्या उसे भुलाया जा सकता है?"
एक पुरानी लोक कथा है। एक बार एक गांव में महामारी फैली, परिवार के सदस्य एक-एक करके मौत के शिकार हो गए। एक नासमझ बच्चा बचा। दुर्भाग्य के मारे इस अनाथ बालक ने घर से भाग कर दूसरे गांव में शरण लौ। वह एक खंडहरनुमा खाली मकान में पहुंचा। भूखा प्यासा थका हुआ बालक उस खंडहर में सो गया। रात को एक भयावह आवाज को सुनकर उसकी नींद टूटी, देखा तो सामने एक भयानक भूत खड़ा है। बच्चा डरा, लेकिन कोई और उपाय न देखकर उसने भूत की खुशामद की और अपनी परेशानी बताई। भूत को दया आ गई, उसने बच्चे के खाने-पीने की व्यवस्था की और फिर उसे सोने की आज्ञा दे दी। भूत रोज रात को आता और बच्चे को अपने कारनामों की डरावनी कहानियां सुनाता, लेकिन बच्चे की विनम्रता और सेवा से वह इतना प्रभावित था कि बच्चे को तंग नहीं करता। बच्चा तो बच्चा ठहरा, वह भयानक भूत से डरता रहता।
एक दिन बच्चे ने भूत से पूछा कि आप दिन में कहां जाते हैं। भूत ने बताया कि वह यमराज के आदेश पर लोगों को मारने का कार्य करता है। बच्चे ने विनती की कि कल यमराज से यह पूछकर आना कि मेरी आयु कितनी है। भूत ने दूसरे दिन लौट कर बच्चे को उसकी आयु बता दी। बच्चे ने फिर विनती की कि मेरी आयु को या तो एक दिन बढ़वा दो या एक दिन कम करवा दो। दूसरे दिन लौट कर भूत ने बताया कि निर्धारित आयु में से न तो एक दिन कम हो सकता है और न एक दिन बढ़ सकता है। बच्चे ने तुरंत फैसला लिया कि जब आयु कम या अधिक हो ही नहीं सकती, तो फिर मुझे कौन मार सकता है और जब कोई मुझे मार ही नहीं सकता, तो मैं भूत से डरूं ही क्यों ? बच्चे ने झट से आग में जलती लकड़ी को उठाया और टूट पड़ा भूत के ऊपर। भूत बेचारा क्या करता, बिना मौत के आए बच्चे को मार भी कैसे सकता था? अब बच्चे के साहस के सामने भाग जाने के अलावा भूत के पास और रास्ता ही क्या था? भूत उस घर को छोड़ कर भाग खड़ा हुआ और लड़का पूरे साहस और मस्ती के साथ उस पुरानी हवेली में मालिक की तरह रहने लगा।
लोक कथा कितनी प्रामाणिक है, यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन यह बात पूरी तरह सही है कि यदि एक बार मन में दृढ़ निश्चय, आत्म-विश्वास और साहस जाग जाए, तो एक छोटा-सा बच्चा भी भयानक भूत को मार भगा सकता है। भय का भूत दरअसल तभी तक डराता है, जब तक मन में साहस नहीं जागता। जिस दिन मन में आत्म-विश्वास और साहस जाग जाता है, फिर न कोई भूत रहता है, न भय।
भय और साहस कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं, जो बाहर से खरीदकर लानी पड़ती हैं। ये तो मन की विशेष अवस्थाएं हैं, जो हमारे मन में स्वाभाविक रूप से रहती हैं। आवश्यकता है तो बस इन्हें जगाने की। जिस दिन एक अवस्था जाग जाती है, दूसरी शक्तिहीन होकर रह जाती है। भय जाग जाता है, तो साहस शक्तिहीन हो जाता है और जब साहस जाग जाता है, तो भय निर्मूल होकर रह जाता है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम मन की किस अवस्था को जगाते हैं। भय को या साहस को!
दुःख और दुर्भाग्य की बात यह है कि आज अधिकांश व्यक्ति भय और असुरक्षा के नकारात्मक भावों से भरे हुए हैं और वह भी बिलकुल काल्पनिक भय और काल्पनिक असुरक्षा की भावना से। लोग तरह-तरह के डर पा पाले घूम रहे हैं। किसी को रोजगार छिन जाने का भय है, तो किसी को रोटी न कमा पाने की चिंता। किसी को व्यापार में घाटा हो जाने का भय है, तो किसी को प्रतिष्ठा समाप्त हो जाने का भय। कोई पैसा न होने से भयभीत है, तो किसी को पास रखे पैसे के लुट जाने का भय। कमाल तो यह है कि हमारे पास जो कुछ है, उसे प्राप्त कर लेने या उसके होने को हमें खुशी नहीं, उसके कल न रहने का भय अधिक है।
यही कारण है कि आदमी उपलब्धियों की वास्तविक खशी से उतना
*💐💐जीवन का पासवर्ड💐💐*
*मेरे मित्र की जुबानी वस्तुस्थिति से परिपूर्ण एक छोटी सी सत्य की धरा पर आधारित कहानी*
*वह मेरे आफिस के दिन की एक साधारण शुरुआत थी ,जब मैं अपने आफिस के कंप्यूटर के सामने बैठा था।*
*"आपके पासवर्ड का समय समाप्त हो गया है," इन निर्देशों के साथ मेरे कंप्यूटर की स्क्रीन पर एक संदेश प्राप्त हुआ। हमें अपनी कंपनी में हर महीने कंप्यूटर का पासवर्ड बदलना पड़ता है।*
*मैं अपने हालिया ब्रेकअप के बाद बहुत उदास था। उसने मेरे साथ जो किया ,उस पर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था और मैं दिन भर यही सोचता रहता था।*
*मुझे एक युक्ति याद आई, जो मैंने अपने पूर्व बॉस से सुनी थी। उन्होंने कहा था, "मैं पासवर्ड का उपयोग अपने जीवन की सोच को बदलने के लिए करता हूँ।"*
*मैं अपनी वर्तमान मनस्थिति में काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था। पासवर्ड बदलने के विचार ने मुझे याद दिलाया कि मुझे अपने हाल के ब्रेकअप के कारण हुए हालात का शिकार नहीं होना चाहिए और मैंने इसके बारे में कुछ करने का निर्णय लिया।*
*मैंने अपना पासवर्ड बनाया - Forgive@her (उसे@माफ कर दो)। मुझे यह पासवर्ड हर दिन कई बार टाइप करना पड़ता था, जब-जब मेरा कंप्यूटर लॉक हो जाता था। हर बार जब मैं दोपहर के भोजन से वापस आता तो मुझे लिखना होता 'उसे@माफ कर दो'।*
*उस सरल क्रिया ने मेरी पूर्व प्रेमिका के बारे में मेरे नजरिये को बदल दिया। सुलह के उस निरंतर स्मरण ने मुझे परिस्थिति को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया और मुझे अपने depression (अवसाद) से बाहर आने में मदद की।*
*अगले महीने सर्वर ने जब मुझे अपना पासवर्ड बदलने की चेतावनी दी, तब तक मैं बहुत हल्का महसूस कर रहा था। एक छोटे से प्रयास का ऐसा चमत्कारी परिणाम पाकर मैं अचम्भित रह गया था और मैंने इस प्रयोग को जारी रखने का निर्णय लिया।*
*अगली बार जब मुझे अपना पासवर्ड बदलना पड़ा तो, मैंने अगले काम के बारे में सोचा जो मुझे करना है। मेरा पासवर्ड Quit@smoking4ever(धूम्रपान@हमेशा के लिए छोड़ दो) बन गया। इसने मुझे अपने धूम्रपान छोड़ने के लक्ष्य का पालन करने के लिए प्रेरित किया और मैं धूम्रपान छोड़ने में सफल हुआ।*
*एक महीने बाद, मेरा पासवर्ड save4trip@europe (बचत@यूरोप भ्रमण) बन गया और तीन महीने में मैं यूरोप जाने में सक्षम हो गया।*
*पासवर्ड बदलने के उस संदेश ने मुझे अपने लक्ष्यों को पूरा करने में मदद की और मुझे प्रेरित और उत्साहित बनाये रखा। कभी-कभी अपना अगला लक्ष्य निर्धारित करना भी मुश्किल होता है, पर इस छोटी सी आदत को बनाए रखने से ये आसान हो गया।*
*कुछ महीनों के बाद, मेरा पासवर्ड था lifeis#beautiful !!! (ज़िन्दगी# खूबसूरत है !!!) और मेरी जिंदगी फिर से बदलने लगी।*
*कहानी का सार यह है कि...आत्मसंवाद महत्वपूर्ण है। जब हम अपने आप से प्रतिबद्ध होते हैं, तो हमें सही दिशा में सोचने की शक्ति मिलती है और हम वास्तविक परिणाम प्राप्त करते हैं।*
*"हम अपने रोज़मर्रा के विचारों से अपना भाग्य बनाते हैं - हमारी इच्छाएं, जो हमें आकर्षित और विकर्षित करती हैं और हमारी पसंद-नापसंद बनती हैं।"*
लिख-लिख भेजत पाती (पत्र-संग्रह)
सम्पादक : नीरज
(कवि गोपालदास नीरज को एक गुजराती लेखिका द्वारा लिखे गए पत्रों का संकलन)
एक साक्षात्कार में कवि नीरज ने बताया कि वर्ष 1952 से 1962 तक का मेरे जीवन का बड़ा काल था, जब उनके जीवन में किसी महिला मित्र ने प्रवेश किया था। उसका नाम न लेकर वह बोले वह गुजराती कहानी लेखिका थीं। जीवन के इन 12 सालों में उसके प्रेम से नीरज को ऊँचाइयाँ मिलीं। उन्होंने कहा कि इसी दौरान उन्होंने सर्वश्रेष्ठ लेखन किया। नीरज कहते हैं कि उसके प्रेम से उनको महान आध्यात्मिक बल और उसके प्यार से आध्यात्मिक दृष्टि मिली। यह पुस्तक उन्हीं पत्रों का संकलन है। यह सभी पत्र अंग्रेजी में हैं जिसका हिन्दी अनुवाद स्वयं नीरज ने ही किया है।
#GopaldasNeeraj