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जो लोग अपने मां बाप की मेहनत को देख के नहीं रोते
वो एक झूठी कहानी देख कर रो है
कितने शर्म की बात है 😡
किसी के पहली बार मिलने की खुशी से कही ज्यादा पीड़ादायक होता है
उसे आखिरी बार अलविदा कहना
ना जाने कितने ख्वाबों को टूट के बिखरते देखना
ना जाने कितनी ख्वाहिशों को मन के भीतर ही मार लेना
ना जाने कितनी बातों का अनकहा रह जाना
हजारों बार झूठे दिलासे दे कर मन को मनाना
हकीकत जानकार भी अनेक अनकहे सवालों को झूठे जवाब ढूंढना
और उस चेहरे को एकटक देख के उसकी आंखों में उन तमाम लम्हों को देख लेना जो उसके साथ रह के गुजारे थे
और उन तमाम सपनों को टूटते देखना जो उसके साथ रह कर पूरे करने थे
इतना सब कुछ होने के बाद जब वो दबी सहमी सी आवाज में बोले कि ठीक है चलते है ऊपर वाले ने चाहा तो फिर मुलाकात होगी
ये बात यक़ीनन कलेजा चीर देती है
ओर इंसान को निहत्था और लाचार बना देती है
बहुत कुछ चाहते हुए भी कुछ नहीं के सकते
ओर इन सब के बीच बड़ी देर से आंखों में ठहरी हुई आंसु की वो बूंद जिसकी आंख में रुकने की आखिरी कोशिशों नाकाम होती है और एक जरा सी बूंद निकल पड़ती है और उन तमाम सवालों के जवाब मांगने लगती है जो हमारे जहन में भी थे
ओर हम जो तमाम तरह के ज्ञान की बाते करते है उस वक्त निरुत्तर रह जाते हैं
ओर अंत में ना चाहते हुए भी नम आंखों ओर रुंधे गले से अलविदा कहना पड़ता है और बस एक ही बात कह पाते है कि अपना खयाल रखना
✍️पवन
बेटियाँ ज़ख़्म सह नहीं पातीं
बेटियाँ दर्द कह नहीं पातीं
बेटियाँ आँख का सितारा हैं
बेटियाँ दर्द में सहारा हैं
बेटियों का बदल नहीं होता
बेटियों सा कंवल नहीं होता
ख़्वाब हैं बेटियों के संदल से
उन के जज़्बात भी हैं मख़मल से
बेटियों को हरास मत करना
इन को हरगिज़ उदास मत करना
बेटियाँ नूर हैं निगाहों का
बेटियाँ बाब हैं पनाहों का
बाप का भी ये मान होती हैं
बेटियाँ हैं सुकून माओं का
बेटियाँ हैं समर दुआओं का
बेटियों के हैं मोम जैसे दिल
दर्द की आँच से पिघलते हैं
बेटियों को सज़ाएँ मत देना
इन को ग़म की क़बाएँ मत देना
बेटियाँ चाहतों की प्यासी हैं
ये पराए चमन की बासी हैं
मारना मत जनम से पहले ही
बोझ इन को कभी समझना मत
बेटियाँ बेवफ़ा नहीं होतीं
ये कभी भी ख़फ़ा नहीं होतीं
बदल: उसके जैसा
बाब: द्वार, रास्ता
समर: फल
क़बा: लंबा, ढीला पहनावा, जो घुटनों तक जाता है, आगे से खुला, ढीली आस्तीनों वाला दोहरा अंगरखा या गाउन।
फ़ौज़िया रूबाबЧитать полностью…
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उस अंतिम चुम्बन के बाद, जब शालिनी ने अपनी नवजात को सौंपा, समय जैसे उसके लिए ठहर गया। कमरे में शून्यता थी, पर हृदय में तूफ़ान। बच्ची की कोमल देह की गर्मी उसकी हथेलियों में अब भी अटकी थी। मन न रोया — वह तो उस दिन मौन विलाप कर चुका था। उस क्षण से उसका संसार उसी रिक्त गोद के चारों ओर घूमने लगा।
शालिनी की गोद अब रिक्त थी, परंतु उसकी छाती पर वह शिशु-स्पर्श अब भी जीवित था। वर्षों बीतते गए, पर वह अंतिम आलिंगन, वह गालों की कोमलता, और वह बालगंध — उसके अंतर में अंकित हो गए थे। वह माँ थी… पर बिना बेटी के। वह स्त्री थी… पर अधूरी। वह प्रत्येक साँझ दीपक के समक्ष बैठती और मौन में अपनी उस संतान का आशीर्वाद माँगती, जिसे उसने स्वयं की कोख से निकाल, किसी और के आँगन में बो दिया था।
अजय उसका सहचर बना रहा, किंतु उनकी गृहस्थी अब मौन के तंतुओं से बुनी जाने लगी थी। दोनों के मध्य अब कोई शिकायत न थी, केवल एक अघोषित पीड़ा का सायास स्वीकृति थी। शालिनी अपने अंतर के तूफ़ान को शब्दों में नहीं ढालती थी — क्योंकि वह जानती थी, कुछ संवेदनाएँ केवल मौन में ही पूरी होती हैं। अजय भी उसकी पीड़ा को जानता था, पर उसका कोई उत्तर नहीं था। वे साथ थे — पर जैसे किसी उजाले और परछाईं की भाँति।
अपनी उस रिक्तता से जूझने के लिए शालिनी ने नगर के एक कन्या विद्यालय में अध्यापिका का दायित्व स्वीकार किया। वहाँ बालिकाओं को पढ़ाना, उनकी चोटी बनाना, कहानियाँ सुनाना — यह सब उसकी आत्मा को किसी अज्ञात सन्तोष से भर देता। हर बच्ची में वह अपनी आर्या को ढूँढ़ने का प्रयास करती। कोई शरारत करती तो उसे लगता — शायद उसकी बेटी भी ऐसी ही होती। कोई गलती करती तो वह अनायास ममता से मुस्कराती।
विद्यालय से लौटने पर वह अकेले में बैठ, कभी-कभी उसी वस्त्र को सहलाती, जिसमें उसने अपनी बेटी को पहली बार लपेटा था। उस वस्त्र में आज भी उस कन्या की गंध थी — या शायद उसकी स्मृति ने ही वह गंध रच ली थी। रातों को जब नींद नहीं आती, वह खिड़की से आकाश की ओर देखती, मानो पूछती — "क्या तू मेरी आर्या को देखता है?" और उत्तर में केवल शून्य की चुप्पी मिलती। @mkhindistory
उधर वह कन्या — जिसे पालकों ने “आर्या” नाम दिया — एक समृद्ध परिवार में पली-बढ़ी। उसकी परवरिश में कोई कमी नहीं रही — उत्तम शिक्षा, संगीत, संस्कृति, और स्नेह भी। पर उसके अंतर में एक अनकहा रिक्त स्थान सदैव बना रहा। वह नहीं जानती थी क्यों, पर उसे लगता — कोई पुकारती है। कोई जो है भी, नहीं भी। कुछ जो छूता है, पर ध्वनि नहीं करता।
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सोलहवें वर्ष में आर्या को अपने जन्म का एक दस्तावेज़ मिला — एक पुराने बक्से में, जहाँ अनचाही सच्चाइयाँ छिपी रहती हैं। उस कागज़ पर लिखा था — "जन्मदाता: शालिनी अजय शर्मा, नागपुर"। वह काँप उठी। उस रात वह अपने कमरे में मौन बैठी रही — घंटों। जैसे किसी ने उसके जीवन का परिचय-पत्र बदल दिया हो। अब वह जानना चाहती थी — न उत्तर के लिए, न प्रश्न के लिए, केवल पहचान के लिए।
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कुछ ही दिनों में उसने शैक्षणिक भ्रमण के बहाने नागपुर की यात्रा का संकल्प लिया। वहाँ उसने विद्यालयों, सामाजिक संस्थानों, और महिलाओं के मंडलों में शालिनी नाम की शिक्षिका को खोजा। अंततः उसे पता चला — एक महिला, जिनका व्यवहार अत्यंत सौम्य है, नगर के एक कन्या विद्यालय में अध्यापिका हैं। उसके हृदय ने उस क्षण धड़कना नहीं, काँपना आरंभ किया।
वह दिन एक शांत वसंत-संध्या थी। विद्यालय में कक्षा समाप्त हो रही थी। आर्या कक्ष के बाहर खड़ी थी — मौन, किंतु अपने ही अस्तित्व की परिधि में डूबी हुई। भीतर से कबीर के दोहे सुनाई दे रहे थे, और वह स्वर उसे विचलित कर रहा था — जैसे वह बचपन में सुनी कोई लोरी हो, जो स्मृति में नहीं, रक्त में बहती हो। शालिनी की आवाज़ में वह आत्मीयता थी, जो आर्या के भीतर किसी बंद द्वार को खोल रही थी।
कक्षा समाप्त हुई। आर्या भीतर गई। शालिनी ने उस किशोरी को देखा — और समय ठहर गया। वह आँखें, वह भौंहें, वह धड़कनें — सब कुछ पहचाना-सा प्रतीत हुआ। शालिनी ने बैठने का संकेत दिया। वह अब भी मौन थी, पर उसकी दृष्टि सजीव हो चुकी थी। आर्या ने काँपते हाथों से वह दस्तावेज़ निकाला और स्वर में विवेक को सहेजते हुए पूछा — “क्या आप मेरी माँ हैं?”
शालिनी का गला भर आया। वह कुछ न कह सकी — केवल हाथ फैलाए। और आर्या उसमें समा गई। वर्षों का सूखा एक ही आलिंगन से तर हो गया। कोई उत्तर नहीं माँगा गया, कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया — केवल दो आत्माएँ थीं, जो पुनः एक-दूसरे में स्फुरित हो रही थीं। वह एक आलिंगन, एक चुम्बन, और दो अश्रुधाराएँ — यही था वह पुनर्मिलन।
💠 प्रेरणाप्रद कहानियाँ
शीर्षक:- संतान का सौदा
कहानी:- शालिनी एक साधारण किंतु आत्मसम्मान से परिपूर्ण स्त्री थी। विवाह के पश्चात वह अपने पति अजय के साथ छोटे से किराए के मकान में रहती थी, परंतु उसके स्वप्न विशाल और भावनाओं से ओतप्रोत थे। संतान की लालसा उसके जीवन की सबसे गहन आकांक्षा बन चुकी थी। अजय एक सरकारी कार्यालय में लिपिक था, ईमानदार किंतु महत्वाकांक्षाहीन। उनकी दाम्पत्य यात्रा मधुर थी, किंतु एक रिक्तता सदैव उपस्थित रहती थी—संतान का अभाव।
विवाह को आठ वर्ष बीत चुके थे, परंतु शालिनी की गोद अब तक सूनी थी। घर-परिवार और पड़ोस की स्त्रियाँ उसके मातृत्व पर प्रश्नचिह्न लगाने लगी थीं। शालिनी दिन-प्रतिदिन मानसिक रूप से विह्वल होती जा रही थी। उसने कितने ही चिकित्सक बदले, मंदिरों में मन्नतें माँगीं, व्रत-उपवास किए, पर परिणाम शून्य। वह अकसर ईश्वर से प्रश्न करती—"क्या मेरी कोख में कोई अपराध है?"
एक दिन शालिनी नगर के प्रसिद्ध स्त्रीरोग विशेषज्ञा डॉ. सुलोचना के पास गई। जाँचों के पश्चात डॉ. सुलोचना ने स्पष्ट कहा—"आपकी कोख पूर्णतया स्वस्थ है, किंतु आपके पति में ही बाधा है।" यह सुनकर शालिनी स्तब्ध रह गई। वह इस तथ्य को अजय को कैसे बताए? यह रहस्य उसके अंतर्मन में एक विषबिज के समान अंकुरित हो गया। अजय से वह यह बात कह नहीं सकी, किंतु वह धीरे-धीरे मानसिक द्वंद्व से घिरती चली गई।
समय बीतता गया। एक दिन उसकी बालसखा सुरभि, जो अब एक धनाढ्य महिला बन चुकी थी, मिलने आई। बातचीत के दौरान सुरभि ने उसकी आँखों की उदासी पढ़ ली। शालिनी ने अपनी पीड़ा प्रकट की। सुरभि ने एक लंबी चुप्पी के बाद कहा—"यदि तुम चाहो तो एक उपाय है... किंतु वह समाज की दृष्टि में वर्जित है।"
शालिनी ने विस्मय से उसकी ओर देखा—"कैसा उपाय?"
सुरभि ने कहा—"एक परिवार है जो किराये की कोख की खोज में है। वे लोग तुम्हें बहुत सम्मान, सुविधा और बड़ी धनराशि देंगे। केवल नौ महीने तुम्हें उनकी संतान को अपने गर्भ में पालना होगा। उसके बाद तुम्हारी गोद खाली होगी, परंतु जीवन भर की आर्थिक स्वतंत्रता मिल जाएगी।"
शालिनी का मस्तिष्क सुन्न पड़ गया। यह संतान का सौदा है, या माँ बनने का एक वैकल्पिक मार्ग? उसकी आत्मा विद्रोह कर उठी—"क्या मातृत्व भी बिकाऊ है?" किंतु दूसरी ओर उसका हृदय बोला—"कम से कम मैं एक बार तो उस भावना को जी सकूँगी—माँ कहलाने की अनुभूति।"
रात्रि में शालिनी ने यह प्रस्ताव अजय को बताया। अजय ने क्षणभर मौन रहकर उसकी आँखों में देखा और कहा—"यदि तुम स्वयं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार हो, तो मैं तुम्हें रोकने का अधिकारी नहीं हूँ।" उसका स्वर संयत था, परंतु आँखों में असहायता का महासागर था।
अगले सप्ताह वह परिवार मिलने आया। धनी, पढ़े-लिखे और शालीन। वे लोग स्वयं संतानोत्पत्ति में अक्षम थे। उन्होंने शालिनी से दबी विनम्रता में निवेदन किया, और स्पष्ट किया कि वे उसे केवल कोख नहीं समझते, अपितु एक देवी मानते हैं जो उन्हें जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपहार देगी।
शालिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। उसे लगा कि शायद यही उसका पुनर्जन्म है—माँ बनने का एक और रूप। कुछ सप्ताहों में कानूनी प्रक्रिया पूर्ण हुई। कृत्रिम गर्भाधान की प्रक्रिया सफल रही। शालिनी अब गर्भवती थी—पर अपनी नहीं, किसी और की संतान से।
गर्भ के साथ ही उसके भीतर भावनाओं का एक समुद्र लहराने लगा। वह शिशु उसके भीतर आकार ले रहा था, वह उसके रक्त से पल रहा था, उसकी धड़कनों के संग धड़कता था। पर वह जानती थी—यह संतान उसकी नहीं होगी। यह केवल एक ऋण है, जो समय के साथ लौटा दिया जाएगा।
हर रात वह उस शिशु से बात करती, उसके साथ अपने स्वप्न बाँटती, उसे लोरी सुनाती, और भीतर ही भीतर टूटती भी थी। उसके गर्भ के साथ ही उसका आत्मबल भी बढ़ रहा था। समाज ने उसकी आलोचना की, कुछ ने उसे "बेची हुई माँ" कहा, पर वह नतमस्तक नहीं हुई। उसके भीतर अब एक परिपक्व नारी जन्म ले रही थी, जो प्रेम और त्याग का वास्तविक अर्थ जान चुकी थी।
गर्भ का आठवाँ महीना चल रहा था, जब शालिनी ने एक दिन चुपचाप अजय से कहा—"मैं यह बच्चा दे नहीं पाऊँगी। यह मेरा बन गया है।" अजय चौंका, पर कुछ नहीं बोला। उसकी चुप्पी में एक गहरा बोझ था।
उस रात्रि शालिनी बहुत रोई। उसे पता था कि उसने एक अनुबंध किया है—न्यायिक रूप से, नैतिक रूप से। पर हृदय किसी कानून को नहीं मानता। उसी रात उसने अपनी डायरी में लिखा—"यदि यह मातृत्व अपराध है, तो मैं बार-बार यह अपराध करना चाहूँगी।"
प्रसव का दिन आया। बच्चा हुआ—एक कन्या। जैसे ही डॉक्टर ने शालिनी की गोद में उसे रखा, उसकी आँखों से अश्रुधारा बह चली। वह बेटी उसकी छाती पर सिमट गई थी। वह उसे छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
किंतु उसी क्षण बाहर वह परिवार खड़ा था, जो वर्षों से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था।
एक रात एक बात लिखेंगे __😊
हर कोई पढ़ सके इतना
साफ लिखेंगे _⚡️
कोई ऐसी बात नहीं अपने
अरमान लिखेंगे ___
हसीन आलम नहीं अपने
हालात लिखेंगे
बहुत शिकायत है हमें तुमसे ऐ जिंदगी
अब तेरे बारे में एक
किताब लिखेंगे ____⚡️
लिखते लिखते खत्म ना हो यह जिन्दगी
एक ही शब्द में पूरी
कायनात लिखेंगे ___
:- मतलबी लोग ✅
/channel/hindistorypdfbook/1739
दर्दजा :- जयश्री रॉय
Dardja :- Jayshri Roy
समय बीतता गया। वृद्धाश्रम में गंगाराम जी और सुशीला देवी ने अनेक बेसहारा वृद्धों की सेवा की, उनकी देखभाल की, और एक पूरे परिवार का निर्माण किया — प्रेम के धागों से बुना हुआ।
विवेक और वाणी धीरे-धीरे समाज में अकेले पड़ते गए। जिन लोगों के सामने उन्होंने माता-पिता को तिरस्कृत किया था, वही अब उनकी उपेक्षा करने लगे। उनके जीवन में वैभव तो था, पर शांति नहीं।
एक दिन वाणी को गम्भीर रोग ने आ घेरा। उपचार में धन खर्च हुआ, पर मन की पीड़ा का कोई उपचार नहीं था। तब उसे अपने जीवन के सारे कटु वाक्य स्मरण होने लगे। सुशीला देवी के आँचल की छाया, गंगाराम जी की करुणा — सब एक छाया की भाँति उसके सम्मुख नाचने लगे।
परंतु अब बहुत विलम्ब हो चुका था।
विवेक ने अनेक बार पिता के पास लौटने का प्रयास किया, परंतु गंगाराम जी ने अब मौन को ही उत्तर बना लिया था।
शिक्षा:- यह कथा हमें यह बोध कराती है कि माता-पिता जीवन का वह आधार हैं, जिनकी छाया में ही संतति पुष्पित-पल्लवित होती है। उनका तिरस्कार केवल एक व्यक्ति का नहीं, समूची मानवता की मर्यादा का हनन है। जिन संतानों के हृदय में श्रद्धा और कृतज्ञता नहीं, वे चाहे जितना धन अर्जित करें, जीवन में शांति नहीं पा सकते। जीवन की संध्या में माता-पिता की आँखें संतान से केवल प्रेम, सम्मान और साथ की याचना करती हैं — और यही उनके लिए सच्चा प्रतिदान है। जो संतान इस सत्य को समझती है, वही अपने जीवन को वास्तव में सफल बना पाती है।
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💠 प्रेरणाप्रद कहानियाँ
शीर्षक:- छाँव की उपेक्षा: एक कलयुगी संतति की कथा
कहानी:- ग्राम खेरापति में गंगाराम जी एक सम्मानित वृद्ध पुरुष थे। उनके मुख से सदैव स्नेह, संयम और शांति की वाणी निकलती थी। गाँव के हर व्यक्ति उन्हें "बाबा" कहकर पुकारता था। जीवन की छह दशक की यात्रा में उन्होंने अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे, परंतु उनके हृदय में कोई कटुता न थी। उनकी पत्नी सुशीला देवी भी उतनी ही करुणामयी, विनीत और धर्मपरायण स्त्री थीं। दोनों ने जीवन के अभावों को धैर्यपूर्वक सहा, एकमात्र पुत्र “विवेक” को उच्च शिक्षा दिलाई, और उसके उज्ज्वल भविष्य हेतु सब कुछ अर्पित कर दिया।
गंगाराम जी लकड़ी बेचकर आजीविका चलाते थे। उन्होंने अपने पसीने की कमाई से विवेक को शहर भेजा, जहाँ वह अभियांत्रिकी की पढ़ाई करके नौकरी में लग गया। समय बीता। विवेक का विवाह नगरीय परिवेश की एक आधुनिक वाणी नामक युवती से हुआ। विवाह के पश्चात् गंगाराम जी को यह आशा थी कि अब पुत्रवधू के आगमन से उनके वृद्ध जीवन में नवसंध्या की कोमल किरणें छिटकेंगी। किंतु यह आशा शीघ्र ही निराशा में परिवर्तित हो गई।
विवेक और वाणी का विवाह अत्यंत धूमधाम से संपन्न हुआ था। गंगाराम जी ने अपनी वर्षों की बचत इस शुभ अवसर पर अर्पित कर दी थी। गहनों से लेकर वस्त्रों तक, सब कुछ में कोई कमी न छोड़ी गई थी। परंतु विवाह के पश्चात् वाणी का व्यवहार धीरे-धीरे बदलने लगा। जहाँ एक ओर गंगाराम जी और सुशीला देवी अपने स्नेह और सरलता से बहू को अपनाने का हर प्रयास कर रहे थे, वहीं वाणी अपने नगरवासिता अहंकार से ग्रस्त होकर ग्राम्य जीवन को हेय दृष्टि से देखने लगी।
वह सास-ससुर के पैर छूने में भी अपमान समझती, रसोई में काम करना तो दूर, उनका हालचाल पूछना भी उसे नागवार लगता। विवेक, जो बचपन में माँ-बाप के चरणों को देवतुल्य मानता था, अब अपनी पत्नी के मोहपाश में इतना बंध गया कि माता-पिता की ओर से आँखें फेर लीं। वह वाणी के हर तर्क को न्यायोचित ठहराने लगा, चाहे वह तर्क कितना ही अनुचित क्यों न हो।
एक दिन वाणी ने स्पष्ट कह दिया — “मैं इस मिट्टी से सने घर में नहीं रह सकती। मुझे आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त नगर का घर चाहिए। और यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं, तो हमें अलग रहना होगा।” विवेक मौन रहा, किंतु उसका मौन ही उसकी सहमति था।
गंगाराम जी और सुशीला देवी के हृदय में मानो किसी ने शूल चुभा दिए। वर्षों की तपस्या और स्नेह का यह प्रतिफल! परंतु उन्होंने विरोध का कोई स्वर नहीं उठाया। उन्होंने विवेक के निर्णय को भी ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया।
कुछ ही समय में विवेक और वाणी शहर लौट गए। उनके जाने के पश्चात् गंगाराम जी का आंगन सूना पड़ गया। जहाँ कभी विवेक की किलकारी गूंजती थी, वहाँ अब सन्नाटा पसरा रहता। सुशीला देवी दिन-रात अपने पुत्र की बाल्यावस्था को स्मरण करतीं और चुपचाप रोया करतीं।
गंगाराम जी स्वयं को खेतों में उलझाए रखते। परंतु बढ़ती उम्र और थकती काया अब उतना साथ नहीं देती थी। कभी-कभी गाँव के बालक उनसे मिलने आते और वह उन्हें आम के पेड़ तले बैठाकर कथा-कहानियाँ सुनाया करते।
किंतु जीवन ने एक और करवट ली।
एक दिन गाँव के एक बालक ने बताया कि शहर में विवेक और वाणी ने वृद्धाश्रम में माता-पिता को भेजे जाने की योजना बनाई है। कारण यह था कि वाणी को अब गंगाराम जी की थोड़ी-बहुत आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, परंतु वह उन्हें अपने घर में नहीं चाहती थी।
गंगाराम जी को यह समाचार वज्र की भांति लगा। परंतु उन्होंने क्रोध नहीं किया, केवल मौन साध लिया। उनकी आंखों में न कोई आँसू था, न शिकायत — केवल एक अपूर्व शांति थी।
जिस दिन विवेक अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजने नगर आया, उस दिन गाँव में आकाश भी उदास था। काली घटाएँ घिरी थीं, मानो सृष्टि स्वयं इस अन्याय पर रो रही हो। गंगाराम जी ने उसे देखकर कोई क्रोध नहीं किया, कोई ताना नहीं मारा, केवल इतना कहा —
"बेटा, यदि यही तुम्हारे जीवन की शांति का मार्ग है, तो हम तैयार हैं। परंतु ध्यान रखना, वृक्ष की छाया छोड़ने वाला पथिक बहुत दूर नहीं चलता।"
सुशीला देवी तो जैसे भीतर ही भीतर टूट चुकी थीं। परंतु उनके मुख पर एक रहस्यमयी मुस्कान थी। उन्होंने विवेक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा —
"तू सुखी रह बेटा। इस संसार में तुझसे अधिक कुछ नहीं चाहा।"
विवेक ने वृद्धाश्रम की गाड़ी बुलवाई। गंगाराम जी और उनकी पत्नी ने बिना किसी आपत्ति के उसमें स्थान ग्रहण किया। गाड़ी जब गाँव की सीमा से बाहर जा रही थी, तब गाँव के कुछ बुजुर्ग और बालक उस गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़े, मानो यह कोई अंतिम यात्रा हो।
नगर का वृद्धाश्रम अत्यंत संकुचित, निर्जन और भावहीन था। वहाँ जीवन तो था, पर जीवंतता नहीं। वहाँ समय ठहर जाता था और आँसू ही संवाद का माध्यम बनते थे।
कहानी जारी....
क्या बोलते हो, यह बुक भेजी जाए क्या ?
Читать полностью…इससे अच्छा ये लोग कोरोना वायरस से मर जाते। खैर क्या ही कर सकते हैं, टाइम ही ऐसा है...... अफ़सोस
Читать полностью…118 views
But subscribe ek bhi nahi
Kya MK Hindi story books ✍ ne aapko kuch nahi diya itne salo se? Itne salo se sath jude rhe tumhare sath tum km se km subscribe to kr hi skte ho....
https://youtube.com/shorts/C_oGWPLFDqc?si=3EzlEXoS1gOfCyA5
Читать полностью…आर्या ने कहा, “मैं लौट नहीं सकती… पर क्या मैं कभी-कभी आ सकती हूँ?” शालिनी ने उसे अपनी छाती से लगाकर कहा — “बेटियाँ लौटती नहीं, लौटाया नहीं जाता… वे हृदय में निवास करती हैं।” अजय जब घर पहुँचा, और उस कन्या को देखा — जिसे उसने वर्षों पूर्व केवल स्मृति में सहेजा था — तो वह भी मौन हो गया। उसने शालिनी से कहा, “अब शायद मैं भी पिता हूँ — थोड़ा सही, पर सच्चा।”
उस रात शालिनी ने वर्षों बाद वह गुलाबी साड़ी पहनी — जो आर्या के नाम की गई थी। मंदिर के दीप के सामने बैठकर उसने पहली बार मुस्कराकर प्रार्थना की। आर्या ने जाते समय वह वस्त्र अपने साथ रख लिया — जो जन्म के समय उसकी देह से लिपटा था। वर्षों बाद दो अधूरी आत्माएँ पूर्ण हुईं — बिना अधिकार के, बिना परिभाषा के, केवल प्रेम की भाषा में।
शालिनी की दृष्टि क्षणभर के लिए द्वार की ओर स्थिर हुई—जहाँ वह दंपती प्रतीक्षा में खड़ा था। फिर उसने अपनी गोद में सिमटी नवजात कन्या की ओर देखा। उसका हृदय काँप उठा। क्या वह अपने प्राणों का अंश किसी और को सौंप सकती है? क्या वह वास्तव में संतान का यह सौदा पूरा कर पाएगी? #MKHindi@mkhindistory @mkhindistory
उसने एक दीर्घ श्वास ली, पुत्री को मस्तक से चूमा और भर्राए स्वर में कहा—
"जा बेटी… तुझे वह घर दूँगी, जो मैं तुझे नहीं दे सकती। माँ वह नहीं जो केवल जन्म दे… माँ वह है जो जीवन दे।"
क्या समय शालिनी की कोख का उत्तर लौटा पाएगा?
जानने हेतु हम से जुड़े रहे।
*मदद एक ऐसी घटना है*
अगर करें
तो लोग भूल जाते हैं..
और
ना करें तो
लोग याद रखते हैं..
😇
*बेहद कड़वी सच्चाई*
शहर लखनऊ में बसे उपनगर गोमती नगर में एक बड़े अफसर रहने के लिए आए, जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे। ये बड़े वाले रिटायर्ड अफसर, हैरान - परेशान से, रोज शाम को पास के पार्क में टहलते हुए, अन्य लोगों को तिरस्कार भरी नज़रों से देखते और किसी से भी बात नहीं करते थे।
एक दिन एक बुज़ुर्ग के पास शाम को गुफ़्तगू के लिए बैठे और फिर लगातार बैठने लगे। उनकी वार्ता का विषय एक ही होता था - मैं इतना बड़ा अफ़सर था कि पूछो मत, यहां तो मैं मजबूरी में आ गया हूं, मुझे तो दिल्ली में बसना चाहिए था। और वो बुजुर्ग शांतिपूर्वक उनकी बातें सुना करते थे।
एक दिन जब सेवानिवृत्त अफसर की आंखों में कुछ प्रश्न, कुछ जिज्ञासा दिखी, तो बुजुर्ग ने ज्ञान दे ही डाला...
उन्होंने समझाया - *आपने कभी फ्यूज बल्ब देखे हैं ?*
बल्ब के फ्यूज हो जाने के बाद क्या कोई देखता है कि बल्ब किस कम्पनी का बना हुआ था, कितने वाट का था, उससे कितनी रोशनी या जगमगाहट होती थी ?बल्ब के फ्यूज़ होने के बाद इनमें से कोई भी बात बिलकुल ही मायने नहीं रखती। लोग ऐसे बल्ब को कबाड़ में डाल देते हैं। है कि नहीं ?
जब उन रिटायर्ड अधिकारी महोदय ने सहमति में सिर हिलाया, तो बुजुर्ग बोले -
रिटायरमेंट के बाद हम सब की स्थिति भी फ्यूज बल्ब जैसी हो जाती है। हम कहां काम करते थे, कितने बड़े/छोटे पद पर थे, हमारा क्या रुतबा था, यह सब कुछ भी कोई मायने नहीं रखता।
कुछ देर की शांति के बाद अपनी बात जारी रखते हुए फिर वो बुजुर्ग बोले कि मैं सोसाइटी में पिछले कई वर्षों से रहता हूं और आज तक किसी को यह नहीं बताया कि मैं दो बार संसद सदस्य रह चुका हूं। वो जो सामने वर्मा जी बैठे हैं, रेलवे के महाप्रबंधक थे। वे सामने से आ रहे सिंह साहब सेना में ब्रिगेडियर थे। वो मेहरा जी इसरो में चीफ थे। ये बात भी उन्होंने किसी को नहीं बताई है, मुझे भी नहीं, पर मैं जानता हूं।
सारे फ्यूज़ बल्ब करीब - करीब एक जैसे ही हो जाते हैं, चाहे जीरो वाट का हो 40, 60, 100 वाट, हेलोजन या फ्लड-लाइट का हो, कोई रोशनी नहीं, कोई उपयोगिता नहीं, यह बात आप जिस दिन समझ लेंगे, आप शांतिपूर्ण तरीके से समाज में रह सकेंगे।
उगते सूर्य को जल चढ़ा कर सभी पूजा करते हैं। पर, डूबते सूरज की कोई पूजा नहीं करता।
यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाएगी, उतनी जल्दी जिन्दगी आसान हो जाएगी। कुछ लोग अपने पद को लेकर इतने वहम में होते हैं कि रिटायरमेंट के बाद भी उनसे अपने अच्छे दिन भुलाए नहीं भूलते। वे अपने घर के आगे नेम प्लेट लगाते हैं - सक्सेना/ गुर्जर/ मीणा/ मिश्रा /गुप्ता/सिंह/ मेघवाल/खान/अहमद/फ्रांसिस /जैन/ चौधरी/तिवारी/विश्वकर्मा/वर्मा/रिटायर्ड आइएएस.. पीसीएस.. आईपीएस... रिटायर्ड जज आदि - आदि।
ये रिटायर्ड IAS/RAS/SDM/तहसीलदार/ पटवारी/ बाबू/ प्रोफेसर/ प्रिंसिपल/ अध्यापक/प्रबंधक......कौन-सा पोस्ट होता है भाई ????
माना कि आप बहुत बड़े आफिसर थे, बहुत काबिल भी थे, पूरे महकमे में आपकी तूती बोलती थी पर अब क्या?
अब तो आप फ्यूज बल्ब ही तो हैं।
यह बात कोई मायने नहीं रखती कि आप किस विभाग में थे, कितने बड़े पद पर थे, कितने मेडल आपने जीते हैं।
*अगर कोई बात मायने रखती है:*
• तो वह यह है कि आप इंसान कैसे है...
• आपने कितनी जिन्दगी को छुआ है...
• आपने आम लोगों को कितनी तवज्जो दी..
• पद पर रहते हुए कितनी मदद की...
• समाज को क्या दिया...
*हमेशा याद रखिए*, बड़ा अधिकारी/कर्मचारी बनना बड़ी बात नहीं, बड़ा इंसान बनना बड़ी बात जरूर है।
*इसलिए अच्छे इंसान बनिए और कुढ़ना बंद कीजिए, जिंदगी संवर जाएगी.*
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जितनी मिट्टी उतना सोना :- अशोक पाण्डे
Jitni Mitti Utna Sona :- Ashok Pandey
गंगाराम जी ने वहाँ भी अपना सौम्य स्वभाव न छोड़ा। वे अन्य वृद्धों को भजन सिखाने लगे, छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाते, और सायंकाल को रामधुन गाते। सुशीला देवी वहाँ भी दूसरों की सेवा में लगी रहतीं।
परंतु उनका मन प्रतिदिन विवेक की स्मृति में डूबता चला गया।
कुछ ही समय में नगर के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक ने वृद्धाश्रम में नि:शुल्क सेवा आरंभ की। वह थे डॉ. गोविंददास, जो कभी गंगाराम जी के ही छात्र रहे थे। उन्होंने जब यह देखा कि उनके गुरुजी वृद्धाश्रम में हैं, तो उन्हें विश्वास ही न हुआ।
उन्होंने गंगाराम जी से आग्रह किया —
"गुरुदेव, कृपया मेरे साथ चलें। यह स्थान आपके योग्य नहीं है। मेरे घर में आपको वो सम्मान मिलेगा जो एक संत को मिलना चाहिए।"
परंतु गंगाराम जी ने नम्रता से उत्तर दिया —
"बेटा, जहाँ तक नियति ले आई है, वहीं से जीवन का सत्य समझना होता है। यदि तू चाहता है मेरी सेवा करना, तो केवल एक कार्य कर — विवेक की आँखें खोल।"
डॉ. गोविंददास ने यह बात गांठ बांध ली। उन्होंने विवेक की पत्नी वाणी से संपर्क किया, और एक योजना बनाई जिससे उनका असली चेहरा समाज के समक्ष उजागर हो सके।
डॉ. गोविंददास ने एक फर्जी संपत्ति विवाद का नाटक रचा, जिसमें उन्होंने यह संकेत दिया कि गंगाराम जी के नाम पर लाखों की जमीन और जेवरात छिपे हुए हैं, और यदि वह अपने माता-पिता को अपनाएँगे तो वह संपत्ति उनके अधीन आ जाएगी।
यह सुनते ही वाणी ने तुरन्त वृद्धाश्रम पहुँचकर सास-ससुर के चरणों में लोट लगा दी। विवेक ने भी पछताने का नाटक करते हुए माफ़ी मांगी और कहा —
"पिता जी, अब मैं आपको लेने आया हूँ। घर चलिए, हम आपके चरणों की सेवा करेंगे।"
गंगाराम जी मौन रहे। उन्होंने एक पत्र लिखा और वृद्धाश्रम के सभी वृद्धों के समक्ष उसका पाठ किया।
वृद्धाश्रम के प्रांगण में सब वृद्धजन एकत्र थे। सामने डॉ. गोविंददास, विवेक, वाणी, गंगाराम जी और सुशीला देवी बैठे थे। शांत वातावरण में गंगाराम जी ने अपनी चिरपरिचित सौम्यता से वह पत्र पढ़ना आरंभ किया —
“प्रिय पुत्र विवेक,
जिस दिन तू जन्मा था, उस दिन हमने अपने जीवन की सबसे बड़ी दौलत पाई थी। तू रोया था, और हम हँसे थे। सोचा था, एक दिन तू हँसेगा और हम गर्व से आँसू बहाएँगे।
परंतु आज जब तू हमारे चरणों में झुकता है, तो उसमें प्रेम नहीं, लालच की गंध है।
बेटा, एक वृक्ष जब फल देता है, तब कुछ लोग उसे पूजते हैं, कुछ पत्थर मारते हैं। तूने क्या किया, यह तू जानता है, पर तू क्या कर सकता था — यह तुझे अभी भी समझना है।
तेरी माता और मैंने तुझे छोड़ नहीं दिया, तूने हमें खो दिया है।
और जहाँ तक उस संपत्ति की बात है, वह केवल प्रेम और आशीर्वाद है, जो अब केवल उसे मिलेगा — जो इसके योग्य होगा।”
छांव अंधेरी :- रमेश गोदावत
Chaanv Andheri :- Ramesh Godawat
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