*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*_प्रश्न‒भगवान्का प्रेम कैसे मिले ?_*
*स्वामीजी‒* चलते-फिरते भगवान्से प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! ऐसी कृपा करो कि आप मीठे लगो, प्यारे लगो’ । यह मान लो कि हमारे सब कुछ केवल भगवान् ही हैं । इस विषयमें मेरेको यह श्लोक बहुत अच्छा लगा‒
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
(गर्गसंहिता, द्वारका॰ १२ । १९)
भगवान्के सिवाय हमारा कोई नहीं है । सत्तामात्र उसीकी है । उसके सिवाय और कोई चीज क्षणमात्र भी ठहरती नहीं । इतना बडा ब्रह्माण्ड है, पर एक क्षण भी ठहरता नहीं !
*_प्रश्न‒सभी भेद अहम्से ही होते हैं, फिर अहम्का नाश होनेपर प्रेमी-प्रेमास्पदका भेद कैसे होता ?_*
*स्वामीजी‒* तत्त्वसे भेद नहीं है, प्रत्युत कल्पित भेद है‒‘भक्त्यर्थं कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्’ (बोधसार, भक्ति॰ ४२) । यह भेद केवल प्रेमके लिये ही कल्पित (स्वीकृत) है । जैसे, खेल खेलनेके लिये रामजी और भरतजी अलग-अलग, दो पक्षोंमें हो जाते हैं तो इससे प्रेम बढ़ता है । भरतजीकी विजयमें रामजी आनन्द मनाते हैं
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही ।
हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ॥
(मानस, अयोध्या॰ २६० । ४)
बोधसे पहले तो अपनी विजयमें आनन्द मनाते हैं, पर प्रेममें दूसरेकी विजयमें आनन्द मानते हैं ! इसलिये प्रेममें ‘तत्सुखे सुखित्वम्’ का भाव रहता है । बोधसे पहलेका आकर्षण अपने सुखके लिये होता है, पर प्रेममें दूसरेके सुखके लिये होता है ।
अहम् मिटनेसे पहलेका द्वैत बन्धनके लिये है और अहम् मिटनेके बादका द्वैत प्रेमके लिये है ।
*_प्रश्न‒मुक्त होनेपर सत्तामात्र रहती है, फिर प्रेम किसमें होगा ? प्रेमके लिये तो अंश-अंशीभाव होना आवश्यक है ?_*
*स्वामीजी‒* यह मुक्त होनेके बाद प्रेमके लिये कल्पित अर्थात् स्वीकृत द्वैत है‒‘भक्त्यर्थं कल्पित द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्’ (बोधसार, भक्ति॰ ४२) ।
*_प्रश्न‒क्या यह स्वीकृति करनी पड़ती है ?_*
*स्वामीजी‒* स्वीकृति हो जाती है, करनी नहीं पड़ती ।
*_प्रश्न‒एक बात यह है कि आस्थाके साथ प्रियता भी होनी आवश्यक है, और दूसरी बात है कि आस्था होनेपर प्रियता अपने-आप हो जायगी‒दोनोमें कौन-सी बात ठीक है ?_*
*स्वामीजी‒* आस्था और प्रियता‒दोनोंमें कोई एक भी हो जाय तो दोनों हो जायँगे । अगर प्रियता नहीं होती तो आस्थाकी कमी है अर्थात् साथमें संसारकी आस्था भी है । पूरी आस्था होनेपर एक सत्ताके सिवाय अन्यकी सत्ता ही नहीं रहेगी ।
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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
*VISIT WEBSITE*
*www.swamiramsukhdasji.net*
*BLOG*
*http://satcharcha.blogspot.com*
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
यदि गुरु बना लिया, पर उसकी बात नहीं मानी तो पाप लगेगा । यदि तत्त्वज्ञ महापुरुष को गुरु बना लिया और उनकी बात नहीं मानोगे, खंडन करोगे तो नरकों में जाओगे ।
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ३३*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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।।श्रीहरिः।।
*श्रोता--* संसार झूठा है और भगवान के सिवाय हमारा कोई नहीं है--यह बात हम मानते हैं, पर भीतर दृढ़ता नहीं आ रही है ! इसके लिये क्या करना चाहिये ?
*स्वामीजी--* आप कोई भी बात दृढ़ करना चाहे तो उसकी लगन होनी चाहिए। लगन के बिना काम नहीं चलता । दृढ़ता नहीं आने से आपको दुख कितना होता है ? दूसरी बातें आपको अच्छी लगती हैं तो दृढ़ता कैसे आए ? दूसरी बातें अच्छी न लगे एक ही बात अच्छी लगे तो दृढ़ता आ ही जाएगी ।
*लगन लगन सब ही कहें लगन कहावे सोय ।*
*नारायण जिस लगन में तन मन दीजे खोय।।*
एक ही लगन लग जाय तो दृढ़ता जरूर आ जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं है । वास्तव में सच्ची लगन नहीं है । दूसरी बातों की, रुपयों आदि की लगन है। रुपए लगन से नहीं आते पर भगवान लगन से आते हैं । आप उसके लिए लगन लगाते हो जो प्रारब्ध के अधीन है । जो लगन के अधीन है उसकी परवाह ही नहीं करते ! परमात्मा की प्राप्ति केवल लगन से होती है, उसमें प्रारब्ध की जरूरत नहीं है । परमात्मा की लगन लगेगी तो दूसरी चीजों में मोह नहीं रहेगा ।
-----परमश्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
*अनन्त की ओर* पृष्ठ 143
राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
*भगवान् से प्रार्थना करो कि ' हे नाथ ! मैं आपको भूलूं नहीं' और नाम जप करते रहो, फिर सच्चा मार्ग अपने - आप मिल जाएगा-*
*जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू ।*
*सो तेहि मिलई न कछु संदेहू।।*
*परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ३३*
*राम ! राम !! राम !!! राम !!!!*
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