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Читать полностью…“जल्दी ही लौटा दूंगा दीदी जी।” उसने मुझे विश्वास दिलाते हुए बोला।
“ठीक है।” मैंने सिर्फ़ इतना ही कहा।
इतने में माँ ने चाय और सैंडविच लेकर कमरे में प्रवेश किया। तब तक शेखर ने 2000 रुपये अपने बटुए में रख लिए थे। पहली बार जब वह पैसे माँगने आया था तब उसके पास सिर्फ़ एक प्लास्टिक का पाउच था लेकिन इस बार उसके पास एक बटुआ था। सचमुच शेखर बहुत कुछ सीख रहा था।
चाय-नाश्ते के बाद शेखर चला गया। एक महीना, दो महीने- इसी तरह पूरा साल धीरे-धीरे बीत गया। शेखर की कोई खबर ना आई। मुझे लगने लगा कि पैसे मिलने के बाद उसका मन बदल गया था। शायद उसकी नीयत खराब हो गई थी। मैंने सोचा, चलो जो होना था सो हुआ, सिर्फ़ 2000 रुपये की ही चपत लगी। पर मुझे ये भी लगा कि उसने मेरा विश्वास तोड़ दिया। मैंने उसे छोटे भाई की तरह समझा पर उसने……..। मैंने तय कर लिया कि आगे से मैं किसी की बातों में नहीं आऊंगी। आज कल की दुनिया में कोई भी विश्वास के लायक है ही नहीं। एक साल के बाद भी शेखर मुझे इसलिए याद आया था क्योंकि मेरे टेप रिकॉर्डर की दूसरी साइड में फिर से वही प्रॉब्लम होने लगी थी जैसी उसने एक तरफ ठीक करी थी।
“शेखर……..! धोखेबाज!” मैंने कहा।
आज फिर रविवार था, मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर गई हुई थी और काफ़ी देर बाद घर लौटी तो देखा कि शेखर माँ के साथ बैठा हुआ है।
“बहुत देर से आया हुआ है। कह रहा था कि दीदी से मिलकर ज़रूर जाऊंगा।कम से कम 3 घंटे हो गए होंगे।” माँ ने कहा और वह उठ खड़ा हुआ।
“ओह! मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर गई थी। पिक्चर देखने।” मैंने उससे कहा।
“आंटी जी ने बताया था, दीदी जी।” उसने फिर से बैठते हुए कहा।
माँ अंदर गई तो उसने एक लिफाफा मेरे हाथ में थमा दिया। “सॉरी दीदी जी, आपके पैसे लौटाने में देर हो गई। मैं परीक्षाओं के लिए दिल्ली गया था और फिर माँ को गुलबर्गा के अस्पताल में लेकर गया था। माँ के पैर की हड्डी टूट गई थी। दीदी जी, मैं यहाँ से चला गया हूँ। अब मुझे गुलबर्गा में ही नौकरी मिल गई है। और एक साल में मेरी इंजीनियरिंग की डिग्री भी पूरी हो जाएगी। फिर मैं सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करूंगा।”
आज मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलूं और उसके पास आज शब्दों की कमी नहीं थी।
“दीदी जी, ईश्वर के अलावा आपने भी मेरी बहुत मदद की है और मैं यह कभी नहीं भूलूंगा। पता नहीं फिर कब मिलेंगे पर अपने छोटे भाई को कभी मत भूलिएगा।”
“शेखर, मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ।” मैं सिर्फ़ इतना ही बोल पाई।
“दीदी जी, मैं हमेशा आपको और आपके आशीर्वाद याद रखता हूँ, जैसा आप ने पहली बार मुझे दिए थे। मैंने अपनी माँ और बहन को भी आपके बारे में बताया था। सब आपके बहुत आभारी हैं।”
“मैं हमेशा तुम्हारे लिए दुआएं करूंगी।” मैंने कहा।
शेखर के चेहरे पर मुस्कुराहट, गर्व, दुःख इत्यादि कई भाव एक साथ झलक रहे थे।
“दीदी जी, अब मैं चलता हूँ।” शेखर अचानक से नीचे झुका और उसने मेरे पैर छू लिए।
“अरे! यह तो मैं भूल ही गया।” उसने अपने बैग से एक मिठाई का डिब्बा निकाला और मुझे थमा दिया। मैंने मुस्कुरा कर उसको देखा। मुझे भी उस पर गर्व हो रहा था।
“बाय, दीदी जी।” यह कहकर वह मुड़ा और चल पड़ा। शेखर लंबा हो गया था। सयाना तो वह था ही, अब आत्मविश्वास भी उसकी चाल में झलकता था।
गेट पर पहुँच कर उसने मुड़ के देखा। उसने हाथ हिलाया और मैंने भी।
शेखर फिर कभी नहीं मिला। हमने घर बदल लिया और उसने शहर।💢💢💢
📌शेखर📌
“दी दी जी!”
मैं एक पल रुकी और पीछे देखा।
“दीदी जी रुकिए!” सोलह सत्रह वर्ष के एक लड़के ने मुझे पुकारा। मैंने रास्ते में उसे आते हुए देखा था। एक झोला लटकाए, हाथ में एक कॉपी पेन लिए, वह लंबे डग भरता मेरी ओर आ रहा था। मैंने स्कूटर घर के आंगन में पार्क किया और गेट तक पहुँची जहाँ वह खड़ा था।
मैंने कहा, “बोलो।”
“दीदी जी, मैं दसवीं क्लास में पढ़ता हूँ। किताबों और फीस के लिए के लिए पैसे जुटा रहा हूँ। आप भी कुछ मदद कर दीजिए प्लीज़ !”
“भीख माँग रहे हो? यह कोई नया तरीका है?”
“नहीं दीदी जी, हम मजबूर हैं, बहुत गरीब हैं। आगे पढ़ना चाहते हैं इसीलिए पैसा इकट्ठा कर रहे हैं।” उसने साफ साफ शब्दों में बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी बात कह दी।
पर मैं बातों से संतुष्ट ना थी। आजकल पैसा माँगने के लिए अपनाए जाने वाले नए-नए तरीकों से मैं काफ़ी परिचित थी।
“क़िस्म-क़िस्म से पैसे माँगने आते हैं लोग। आए दिन ऐसे लोगों से वास्ता पड़ता है और अखबारों में तो ऐसे लोगों के बारे में छपता ही रहता है।” मैंने ऊपर से नीचे उसे देखा और कहा, “और हाँ, अगर पढ़ना ही चाहते हो तो कोई काम धंधा क्यों नहीं करते? पार्ट टाइम नौकरी करके भी तो पढ़ सकते हो।”
“जी दीदी जी, मैं पेट्रोल पंप पर काम करता हूँ, रात को 8 घंटे। मुझे हज़ार रुपये मिलते हैं, उसमें से 800 रुपये मैं घर भेज देता हूँ। घर में माँ और छोटी बहन है।” उसने बहुत स्पष्टता से कहा।
“और तुम्हारे पिता?” मैंने पूछा।
“नहीं हैं। बहुत साल हो गए उनको गुज़रे हुए। मेरी माँ एक प्राइवेट अस्पताल में आया का काम करती है।” उसकी आंखों में करुणा या याचना का भाव नहीं बल्कि एक दृढ़ संकल्प की झलक थी।
“तो कितना पैसा चाहिए तुम्हें?” हाथ से कॉपी लेने का इशारा करते हुए मैंने कहा। शायद मेरे मन में अभी भी बहुत सवाल थे।
“आप कुछ भी दे दीजिए।”
उसने कॉपी में उसके इकट्ठा किए पैसों का पेज खोल दिया। बहुत से लोगों ने उसे पैसे दिए थे..रुपये दिए थे। पैसे तो आजकल मंदिर के बाहर बैठे भिखारी भी नहीं लेते। मैंने देखा कि अधिकतर लोगों ने 10 रुपये दिए थे। कुछ ने 5 भी। एक किसी कालिया साहब ने 30 रुपये दिए थे। पता नहीं किस हिसाब से। शायद उनके पास उस समय 30 रुपये ही छुट्टे होंगे। या शायद उन्हें इस दुबले पतले लड़के से, जो भिखारी तो बिल्कुल नहीं लगता था, कुछ ज़्यादा सहानुभूति हुई होगी।
“कितने रुपये इकट्ठे हुए हैं अभी तक?” मैंने फिर वही सवाल पूछा।
“335 दीदी जी।” उसने फटाक से उत्तर दिया। एक बात तो तय थी कि भीख माँगने वाले इस तरह से हिसाब नहीं रखते। धीरे-धीरे मुझे उसकी मंशा में खोट नज़रआना बंद हो गया।
“तुम्हें कुल कितना चाहिए?”
“कुल 530 चाहिए दीदी जी।” उसने अगले पन्ने पर साफ-साफ लिखा हुआ हिसाब मुझे दिखा दिया।
“तो और कितने घर घूमोगे?” मैंने पूछा।
“आज शाम तक इकट्ठा कर लूंगा दीदी जी। कल फीस भरनी है।” उसने निश्चय कर रखा था।
“अच्छा अंदर आओ।” मैंने उससे कहा। मेरे पीछे पीछे वह अंदर आ गया। घर में मेरी माँ थीं जो कि दोपहर में आराम कर रही थीं। मैं अभी लाइब्रेरी से आई थी क्योंकि आज मेरी छुट्टी थी। मेरी नई-नई नौकरी लगे 6 महीने हुए थे।
“पानी पियोगे?” मैंने उससे पूछा।
“जी दीदी जी।” मैंने उसे धीरे से कहते हुए सुना, “बोतल भर कर दे दीजिए, प्लीज़ !” उसने एक खाली बोतल मेरी तरफ बढ़ा दी।
मैंने उसे बोतल भर कर दे दी और एक गिलास में ठंडा पानी भी दिया। उस दिन बहुत गर्मी थी। मैं समझ नहीं पा रही थी कि कैसे कोई इतनी गर्मी में दर-दर भटक कर इस तरह पैसे इकट्ठा कर सकता है। हम भाई-बहनों को कभी भी रुपये पैसे की तंगी महसूस नहीं हुई थी। पापा एक गजेटेड ऑफ़िसर थे और माँ भी सरकारी विद्यालय में प्रधानाध्यापिका थी। मेरी नौकरी भी बहुत अच्छी थी। मैं स्थानीय कॉलेज में लेक्चरार नियुक्त हुई थी। मुझे अपने भाई का ध्यान आया। 500 रुपये तक तो वह मासिक भत्ता ले लेता था और इधर-उधर से अलग। पढ़ाई के नाम पर तो उसे बिच्छू काट लेता था। नई किताबें तो कमरे में उठापटक करने में ही फट जाती थी। मेरा भाई चिंटू, माँ का लाडला था।
“अरे, तुम्हारा नाम क्या है? मैंने तो पूछा ही नहीं।”
“शेखर, दीदी जी” उसने विनम्रता से कहा।
“शेखर!” मैंने दोहराया। “मेरे भाई का नाम शिखर है। घर पर उसे चिंटू बुलाते हैं।” मैंने मुस्कुरा कर कहा। कितना अजीब संयोग था।
फिर मैंने उसे देखा और कहा, “मैंने सोचा है कि मैं तुम्हारी मदद करूंगी। तुमको बाकी के सारे पैसे दे दूंगी ताकि तुमको दर-दर और भटकना ना पड़े। लेकिन अगर तुम सही इंसान ना निकले तो मैं भविष्य में कभी भी किसी और की मदद ना कर पाऊंगी। चाहे वह कितना भी सच्चा हो। इसलिए मेरा विश्वास मत तोड़ना।”
“दीदी जी, ऐसा कभी नहीं होगा। मैं सच कहता हूँ।” उसने गंभीरता से कहा।
झुण्ड में पले हुए
रास्ते चले हुए,
भीड़ वो बनाते हैं,
आदमी कहलाते है!
आए तो निगाह में
जो खड़े राह में,
तोड़ते सुराख से,
थोड़ी खुराक से,
पेट चलाते हैं,
आदमी कहलाते है!
ये इधर ये उधर,
पड़े हुए तितर बितर,
इनकी किसको फ़िकर
मौन में जिनका ज़िकर,
खामोशियां सुनाते हैं,
आदमी कहलाते है!
जानवर है कौन वो
जान पर भी मौन जो,
आखिरी मुस्कान विस्मृत
असफलताओं की परिणीति,
स्वप्न को जलाते है
आदमी कहलाते है!
जीव जिसका रो रहा है
भाव दाव खो रहा है,
बोझ जिसके सीने लटका
वो कि जो हैं राह भटका,
एड़ियां घिसाते हैं,
आदमी कहलाते है!
पूछताछ जिनकी नहीं
रोक — टोक हर कहीं,
उपहास जिसको प्रसाद है
खुशियां जिसे अपवाद है,
सयाने होते जाते हैं,
आदमी कहलाते है!
भूल गए शिकवा शिकायत,
अपनी इसे माने इनायत,
मांगता खुद की खैर नहीं
अपने अपनों से गैर सही,
सांस जिसको बोझ है
किंतु जीवन बचाते है,
आदमी कहलाते है!
कोई इनकी सुधि ले,
हाल कैसा, पूछ ले,
मौन वो तब भी रहेगा
निश्चय कुछ न कहेगा,
आँख में अश्रु नहीं
किंतु हृदय डुबाते हैं,
आदमी कहलाते है!
#MKHindi@mkhindistory
हर घाव इश्क़ नहीं होता"
लोग कहते हैं — दिल टूटा होगा,
किसी प्यार में धोखा खाया होगा।
पर क्या हर दर्द की यही कहानी होती है?
क्या हर आह में कोई महबूब शामिल होता है?
कभी माँ-बाप की कठोरता से टूटा मन,
तो कभी भाई-बहनों से तुलना बनी उलझन।
कभी दोस्तों की पीठ पीछे की गई बात,
बन जाती है रातों की तन्हा बरसात।
असफल परीक्षाएं, अधूरे ख्वाब,
हर कोने में छिपे हैं अनकहे ज़हर के जवाब।
पर समाज कहता है — इश्क़ में टूटा है दिल,
कभी किसी ने पूछा, क्या बाकी सब कुछ था सहज और मिल?
हर मुस्कुराता चेहरा खुश नहीं होता,
कई बार हँसी के पीछे दर्द रोता।
लोग रिश्तों के नाम पर दर्द को आंकते हैं,
जीवन की गहराइयों को हल्के में टांकते हैं।
कभी आत्म-सम्मान की टूटन,
कभी भविष्य की अनिश्चित गूँज,
ये सब भी तो घाव हैं,
जो समय नहीं, समझ मांगते हैं।
तो ऐ समाज, नज़र बदलो,
हर दर्द का नाम 'प्रेम' न रखो।
लोग जीवन से भी जूझ रहे हैं,
बस मौक़ा मिले, तो टूटे दिल नहीं —
टूटे इंसान भी जुड़ सकते हैं।
" ये सच है जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे" हम कुछ भी अच्छा या बुरा कर्म करते हैं उसका असर हमारे परिवार पर हमेशा पड़ता है और कहते हैं कि अपने कर्म इतना अच्छा करो कि कोई बुरा भला कहे की कर्म का फल मिलेगा तो अच्छा ही मिलेगा क्योंकि हमारे कर्म अच्छे हैं और हां हमारे बुजुर्गों का सम्मान करना जरूरी है।
उन्होंने कितनी तकलीफ़ से हमें पाला पोसा है और अब हमारी बारी है उनका ख्याल रखने की। वो घर किस काम जहां अपनों के लिए एक कोना ना हो।
पापा जी!” जो कुछ बना है चुपचाप खा लिया करिए। ये रोज – रोज आपके नखरे उठाने के लिए मैं नहीं बैठीं हूं... एक तो दिन भर काम करो ऊपर से इनके नखरे झेलो... कविता बड़बड़ाती हुई कमरे से बाहर निकल गई। सुबह के नाश्ते का वक्त था और कविता ने कड़क सी थोड़ी जली रोटी सूखी सब्जी के साथ परोसी थी।
कमलेश जी ने सिर्फ इतना ही कहा था कि,” बहू इस उम्र दांत भी साथ नहीं देता थोड़ी मुलायम रोटी दिया करो नहीं तो थोड़ा दूध दे दो उसी में भिगोकर कर खा लूंगा।” ये आए दिन के किस्से बन गए थे। थाली में खाने लायक खाना कभी कभार ही होता था। नकली दांत थे और पेट भी कमजोर हो ही जाता है इस उम्र में तो कभी दलिया, उपमा कुछ मुलायम सा बन जाए तो स्वाद भी बदल जाता है और खाने में आराम रहता
है, लेकिन खाने को दो वक्त रोटी भी सम्मान की नहीं परोसी जाती थी उनकी थाली में ऐसा लगता था कि किसी बेजुबान के सामने खाना डाल दिया गया हो । करते भी क्या कमलेश जी बेटे की जिद्द पर गांव वाला घर बेचकर दिया था और तब बेटे ने उसी से शहर में ये घर खरीदा था। शाम को टहलने निकलते कमलेश जी तो पार्क में, जहां उनके कई मित्र बन चुके थे मुलाकात हो जाती और थोड़ी गपशप हो जाती थी। बुढ़ापे की बातें कभी कल की सुखद यादों में चली जाती कभी भविष्य की चिंताओं की ओर खींच लिया करती थी। आज कमलेश बाबू थोड़े उदास से लग रहे थे। रंजन बाबू को समझ में आ रहा था कि कोई तो बात है?
उन्होंने जानने की कोशिश की तो कमलेश बाबू ने तबीयत खराब होने का बहाना बना दिया क्योंकि चौराहे पर इज्जत उछालना यानी अपने ही घर की बदनामी थी और जितने मुंह उतनी बातें। पता नहीं कौन किस बात को कैसे लेगा और कैसे परोसेगा तोड़ मरोड़ कर ।
फिर अपनी परवरिश पर भी तो सवाल उठता की... कैसे संस्कार दिए हैं अपनी औलाद को जो पिता की परवाह ही नहीं करता है। उसके खाने पीने और दवाइयां भी रहमो-करम पर चलती हैं। जल्दी ही पार्क से लौट आए थे कमलेश बाबू।
रात के भोजन के वक्त उन्होंने बेटे से बात करनी चाही तो बहू ने बात काटते हुए कहा कि " पापा जी दिनभर की भागदौड़ के बाद इनको चैन की दो रोटी तो खाने दिया करिए, बातें तो बाद में होती रहेगी।” सिर झुकाकर खाना खाया और अपने कमरे में चले गए कमलेश जी। उनके आंखों के सामने पुराने दिनों की यादें ताजा होने लगी थी
कि "कैसे ललीता जी एक - एक गर्म रोटी खिलातीं थी पूरे परिवार को और किसी को एक रोटी खाने का मन हो तो उसे प्यार से दो खिला देती। मां अन्नपूर्णना का आशीर्वाद था उन पर खाने में स्वाद तो था ही और दिल लगा कर सब की पसंद का ध्यान में रखती थीं। यही बेटा जिसके नखरे उठाते नहीं थकती थीं एक सब्जी ना खाने पर तुरंत दूसरी बनाया करती थीं।
इस उम्र में आपका हमसफर जब छोड़कर चला जाता है तो जिंदगी के सारे रंगों को भी अपने साथ ले जाता है। एक परछाई की तरह उन्होंने कितना ख्याल रखा था सभी का। सचमुच हम सबने उनकी कद्र नहीं की थी तब।” आंखें नम हो गई थी और ललीता जी की फोटो पर हांथ फेरते बोल पड़े थे..” ये कैसा साथ निभाया तुमने, अपने साथ मुझे भी ले जाती...
जिल्लत की रोटी खाने के बजाय मैं मर क्यों नहीं जाता।” उनको अहसास हुआ कि जैसे ललीता जी कह रहीं हों कि आप वापस गांव चले जाइए जी... इससे ज्यादा ख्याल तो हमारा नौकर रामू आपका रख लेगा। दुखी होने की कोई जरूरत नहीं है अभी आपके हांथ पांव सलामत हैं और अपनी खेती -बाड़ी है वहां। कमलेश जी की आंखें खुली तो उनको लगा कि सचमुच रोज तिल - तिल कर क्यों मरना।
जब तक जिंदगी है आखिर सांस तक सम्मान से जीना चाहिए और मौत का क्या आंखें बंद तो कौन से रिश्ते, तुरंत ही बिस्तर से जमीन पर लिटा दिया जाता है' बॉडी' बोल कर।
अब उनकी सारी उलझनें सुलझ गई थी। नई सुबह ने उनके मन में नए जोश भर दिया था। बहू नाश्ता लेकर आई तो थाली माथे से लगा कर बोले... बहू!” ये खाना वापस ले जाओ।”” क्या हुआ बाबूजी? खाना नहीं खाना था तो पहले ही बता देते। पैसे की बरबादी अलग और कौन खायेगा ये?" एक ही सांस में कविता बोली जा रही थी।
बहू” 'इज्जत की सूखी रोटी 'भी बहुत होती और बेइज्जती का पकवान किसी काम का नहीं होता है। आज तुम खाना इस खाने को और सोचना जरुर की हो सकता है ऐसी थाली तुम्हारे बच्चे भी तुम्हें दे सकते हैं और एक बात कह रहा हूं कि सबके कर्म सामने आते ही हैं एक ना एक दिन। उस दिन के लिए तुम भी तैयार रहना।
आखिर क्या चाहिए था मुझे दो वक्त की रोटी सम्मान के साथ और वो भी तुम ऐसे परोसती हो कि कोई जानवर भी ना खाए ऐसे खाने को। मैंने फैसला ले लिया है कि मैं अब यहां नहीं रहूंगा और हां मैंने गांव की टिकट करा लिया है और मैं आज शाम को निकल रहा हूं। रही बात खाने की तो बाहर कुछ खा लूंगा तुम्हें कल से कोई परेशानी नहीं होगी मेरी वजह से।" कविता के तो होश उड़ गए थे कि पति रवि को पता चलेगा तो क्या कहेगी और अभी तक तो वो बाबू जी को भी रवि से ज्यादा बात नहीं करने देती थी और बाबूजी ने
छंद है यह फूल (कविता-संग्रह) – अज्ञेय
#Agyeya #Poetry
एक चिथड़ा सुख — निर्मल वर्मा
#NirmalVerma #Novel [epub]
वे दिन — निर्मल वर्मा
#NirmalVerma #Novel [pdf]
मैक्सिम गोर्की जन्मशती अंक (सोवियत दर्पण)
#MaximGorky
कल सुनना मुझे – धूमिल
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चांद का मुंह टेढ़ा है (कविता-संग्रह)
– गजानन माधव मुक्तिबोध
#Muktibodh #Poetry
मेरी कहानियां – निर्मल वर्मा
#NirmalVerma
“यह लो 200 रुपये। अब तुम्हें और कहीं जाने की ज़रूरत नहीं।” उसे सौ रुपये के दो नोट पकड़ाते हुए मैंने कहा।
“धन्यवाद दीदी जी।” वह अब थोड़ा झिझका ।
“दोबारा मिलोगे?”
“दीदी जी ज़रूर मिलूंगा।” उसने कहा और धीमे-धीमे कदमों से गेट के बाहर चला गया।
मैं सोचने लगी कि मैंने गलत किया या सही? माँ को बताऊं या नहीं? फिर सोचा कि जो हो गया और जो कर दिया, ठीक है। फिर भी दिल में सवाल उठता रहा कि वह कोई ठग या चोर तो नहीं था? खैर, मुझे कौन सा किसी को हिसाब देना होता था। पर फिर भी 1991 में 200 रुपये बहुत मायने रखते थे।
मैं इस बात को लगभग भूल ही गई थी। जून के महीने में जब दसवीं के परीक्षा के परिणाम अखबारों में घोषित हुए तो मुझे उस लड़के, शेखर, की याद आ गई। जब से वह रुपये लेकर गया था वह मुझे फिर कभी दिखाई नहीं दिया था। मैंने उससे उस पेट्रोल पंप का भी नाम पूछा था जहाँ पर वह काम करता था। ‘करता भी था या उसने मुझे ऐसे ही कुछ भी बता दिया था’-ऐसा मेरे मन में आया क्योंकि वह दोबारा लौट कर नहीं आया था।
दसवीं कक्षा के परिणाम घोषित हुए एक महीना हो गया था। उस दिन मैं रविवार की छुट्टी का पूरा फायदा उठा रही थी। अपने बाल धोकर, दो अखबार और चाय का प्याला लेकर बाहर बरामदे में बैठी थी।
“दीदी जी!” गेट के बाहर से आवाज आई।
मैंने अखबार हटाकर देखा तो गेट के बाहर वही लड़का, शेखर, खड़ा था। मैं सचमुच हैरान हुई थी। मैंने उसे अंदर आने का इशारा किया।
“दीदी जी नमस्ते! कैसी हैं आप?” उसने बहुत आदर के साथ पूछा।
“नमस्ते शेखर, तुम कैसे हो?”
“अच्छा हूँ, दीदी जी। आपसे मिलना था लेकिन पेट्रोल पंप पर डबल शिफ़्ट की वजह से नहीं मिल पाया।” उसने कहा।
मैं उससे कुछ पूछना चाहती थी लेकिन मेरे पूछने से पहले ही उसने एक न्यूज़-पेपर निकाला और मेरे सामने फैला दिया।
“दीदी जी, मेरा दसवीं का परिणाम। मुझे 83% अंक मिले हैं।” उसने बड़े उत्साह से कहा।
“अरे वाह!” मुझे यकीन नहीं हो रहा था। “शेखर तुमने तो सचमुच कमाल कर दिया!” मैं ख़ुशी से तालियाँ बजाने लगी।
“माँ! माँ!” मैंने कमरे की तरफ मुंह करके आवाज लगाई।
“घर में सब कैसे हैं?” मैंने उससे पूछा।
“सब अच्छे हैं। पेट्रोल पंप के मालिक भी बहुत खुश हैं। मेरी तनख़्वाह भी बढ़ गई है।” उसने जेब से 200 रुपये निकाल कर दोनों हाथों से मेरी तरफ बढ़ा दिए।
“अरे, यह क्या है?” मैंने पूछा।
“दीदी जी, मैं आपका उपकार कभी नहीं भूलूंगा। आप ने मेरी बहुत मदद की। अब यह रुपये मैं आपको लौटाना चाहता हूँ।”
“इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, सच में।” मैंने कहा।
“प्लीज़ दीदी जी,” उसने अपना हाथ पीछे नहीं किया।
मुझे भी लगा यह उसका स्वाभिमान है। मैंने धीरे से पैसे लिए और कई आशीर्वाद उसको दे डाले कि भगवान करे वह जिंदगी में खूब पढ़े-लिखे और तरक्की करे ।
शेखर धीरे धीरे हमारे परिवार में एक जाना पहचाना चेहरा हो गया। कभी-कभार वह घर पर आ जाता था। कभी चाय पी कर या फिर कभी खाना खा कर चला जाता था। वह अब डिप्लोमा इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग करने लगा था। एक बार उसने बातों बातों में मेरा एक छोटा वॉकमैन ठीक कर दिया था फिर एक दिन मैंने उसे अपना सोनी का म्यूज़िक सिस्टम भी ठीक करने के लिए सौंप दिया।
“छोटा सा पुर्जा है, नया लाकर डालना पड़ेगा।” उसने कहा।
“ठीक है, कितने का आएगा?” मैंने उससे पूछा।
“मैं ले आऊंगा दीदी जी।” उसने कहा
उसको इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान की अच्छी समझ हो चुकी थी। ऐसे ही औने-पौने दामों में उसने हमारे घर के कई इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण ठीक कर डाले थे। माँ को भी उसकी काबिलियत पर गर्व होने लगा था। पिताजी भी शेखर की तारीफ करते थे। धीरे-धीरे कब वह दुबला-पतला मासूम सा शेखर बड़ा हो गया, पता ही नहीं चला। उसके बोलने-चलने के ढंग में भी बहुत परिवर्तन आ गया था।
एक दिन शेखर घर आया और मुझसे बोला, “दीदी जी, डिग्री का फॉर्म भरना है। 4000 रुपये चाहिए। मैं शीघ्र ही लौटा दूंगा।”
“4000?” मैंने सवाल किया।
“नहीं तो दीदी जी आप 2000 रुपये ही दे दीजिए। 2000 मैं मालिक से उधार ले लूंगा।” उसने कहा।
“देखती हूँ।” यह कहकर मैं अंदर चली आई और सोचने लगी कि कहीं यह विश्वास दिलाकर धोखा तो नहीं दे देगा। 2000 रुपये एक बड़ी रक़म थी। माँ घर पर ही थीं परंतु मैं उनसे नहीं पूछना चाहती थी। 2000 रुपये के लिए शायद वह राज़ी ना होती। मैंने अपने पर्स से 2000 रुपये निकाले और मुट्ठी में रख लिए। यह भी इत्तेफाक था कि शेखर भी उसी हफ़्ते आता था जब मुझे तनख्वाह मिली होती थी वरना मैं बोल सकती थी कि भाई सच मानो मेरे पास इस समय इतने पैसे नहीं है। और मुझसे झूठ कभी भी बोला नहीं जाता।
मैंने बाहर जा कर दो हजार रुपये उसके हाथ में थमाते हुए बोला, “जल्दी से रख लो शेखर।” पता नहीं मैंने ऐसा क्यों बोला? शायद मैं नहीं चाहती थी की माँ को इसके बारे में पता चले।
उस रात उसका फ़ोन आया था —
ठीक 2:47 AM पर।
मैं जागा नहीं।
फोन बजा,
बंद हुआ,
फिर दोबारा बजा।
फिर… हमेशा के लिए ख़ामोश हो गया।
---
सुबह उठा तो
उसका नाम स्क्रीन पर चमक रहा था —
3 मिस्ड कॉल।
मैंने सोचा,
"फिर कोई फ़िजूल की बहस रही होगी…"
और मोबाइल साइड में रख दिया।
10 मिनट बाद
दोस्त का कॉल आया —
"वो नहीं रही…"
---
क्या?"
सिर्फ यही एक शब्द निकला मुँह से।
और फिर बिल्कुल शून्य।
ना आंसू निकले,
ना गुस्सा,
ना यकीन।
बस एक कंपकंपी थी —
जिसने दिल को भींच लिया था।
मैंने सोचा कोई मज़ाक है,
फिर हँसने की हिम्मत भी नहीं हुई।
क्योंकि अचानक
दिल में एक सिहरन उठी —
“क्या उसने… मरने से पहले मुझे कॉल किया था?”
---
मैं भागा,
उसके घर,
उसकी गली,
उसकी आख़िरी तस्वीर तक।
सब जगह एक ही बात थी —
“वो बहुत देर तक अकेले बैठी रही…
आख़िरी बार किसी को फोन कर रही थी…
किसी को माफ़ करने की कोशिश में थी।”
---
अब मैं हर रात 2:47 पर उठता हूँ।
फोन घूरता हूँ।
दिल करता है,
कभी फिर से वो कॉल आए…
बस एक बार।
---
उसकी यादें अब सिर्फ़
वो तीन मिस्ड कॉल बन चुकी हैं —
जो मैं कभी उठा नहीं पाया।
---
लोग कहते हैं,
"जो गया, उसे जाने दो..."
पर कोई उनसे पूछे —
"जिसने जाने से पहले तुम्हें पुकारा हो,
क्या उसे भुलाया जा सकता है?"
एक पुरानी लोक कथा है। एक बार एक गांव में महामारी फैली, परिवार के सदस्य एक-एक करके मौत के शिकार हो गए। एक नासमझ बच्चा बचा। दुर्भाग्य के मारे इस अनाथ बालक ने घर से भाग कर दूसरे गांव में शरण लौ। वह एक खंडहरनुमा खाली मकान में पहुंचा। भूखा प्यासा थका हुआ बालक उस खंडहर में सो गया। रात को एक भयावह आवाज को सुनकर उसकी नींद टूटी, देखा तो सामने एक भयानक भूत खड़ा है। बच्चा डरा, लेकिन कोई और उपाय न देखकर उसने भूत की खुशामद की और अपनी परेशानी बताई। भूत को दया आ गई, उसने बच्चे के खाने-पीने की व्यवस्था की और फिर उसे सोने की आज्ञा दे दी। भूत रोज रात को आता और बच्चे को अपने कारनामों की डरावनी कहानियां सुनाता, लेकिन बच्चे की विनम्रता और सेवा से वह इतना प्रभावित था कि बच्चे को तंग नहीं करता। बच्चा तो बच्चा ठहरा, वह भयानक भूत से डरता रहता।
एक दिन बच्चे ने भूत से पूछा कि आप दिन में कहां जाते हैं। भूत ने बताया कि वह यमराज के आदेश पर लोगों को मारने का कार्य करता है। बच्चे ने विनती की कि कल यमराज से यह पूछकर आना कि मेरी आयु कितनी है। भूत ने दूसरे दिन लौट कर बच्चे को उसकी आयु बता दी। बच्चे ने फिर विनती की कि मेरी आयु को या तो एक दिन बढ़वा दो या एक दिन कम करवा दो। दूसरे दिन लौट कर भूत ने बताया कि निर्धारित आयु में से न तो एक दिन कम हो सकता है और न एक दिन बढ़ सकता है। बच्चे ने तुरंत फैसला लिया कि जब आयु कम या अधिक हो ही नहीं सकती, तो फिर मुझे कौन मार सकता है और जब कोई मुझे मार ही नहीं सकता, तो मैं भूत से डरूं ही क्यों ? बच्चे ने झट से आग में जलती लकड़ी को उठाया और टूट पड़ा भूत के ऊपर। भूत बेचारा क्या करता, बिना मौत के आए बच्चे को मार भी कैसे सकता था? अब बच्चे के साहस के सामने भाग जाने के अलावा भूत के पास और रास्ता ही क्या था? भूत उस घर को छोड़ कर भाग खड़ा हुआ और लड़का पूरे साहस और मस्ती के साथ उस पुरानी हवेली में मालिक की तरह रहने लगा।
लोक कथा कितनी प्रामाणिक है, यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन यह बात पूरी तरह सही है कि यदि एक बार मन में दृढ़ निश्चय, आत्म-विश्वास और साहस जाग जाए, तो एक छोटा-सा बच्चा भी भयानक भूत को मार भगा सकता है। भय का भूत दरअसल तभी तक डराता है, जब तक मन में साहस नहीं जागता। जिस दिन मन में आत्म-विश्वास और साहस जाग जाता है, फिर न कोई भूत रहता है, न भय।
भय और साहस कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं, जो बाहर से खरीदकर लानी पड़ती हैं। ये तो मन की विशेष अवस्थाएं हैं, जो हमारे मन में स्वाभाविक रूप से रहती हैं। आवश्यकता है तो बस इन्हें जगाने की। जिस दिन एक अवस्था जाग जाती है, दूसरी शक्तिहीन होकर रह जाती है। भय जाग जाता है, तो साहस शक्तिहीन हो जाता है और जब साहस जाग जाता है, तो भय निर्मूल होकर रह जाता है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम मन की किस अवस्था को जगाते हैं। भय को या साहस को!
दुःख और दुर्भाग्य की बात यह है कि आज अधिकांश व्यक्ति भय और असुरक्षा के नकारात्मक भावों से भरे हुए हैं और वह भी बिलकुल काल्पनिक भय और काल्पनिक असुरक्षा की भावना से। लोग तरह-तरह के डर पा पाले घूम रहे हैं। किसी को रोजगार छिन जाने का भय है, तो किसी को रोटी न कमा पाने की चिंता। किसी को व्यापार में घाटा हो जाने का भय है, तो किसी को प्रतिष्ठा समाप्त हो जाने का भय। कोई पैसा न होने से भयभीत है, तो किसी को पास रखे पैसे के लुट जाने का भय। कमाल तो यह है कि हमारे पास जो कुछ है, उसे प्राप्त कर लेने या उसके होने को हमें खुशी नहीं, उसके कल न रहने का भय अधिक है।
यही कारण है कि आदमी उपलब्धियों की वास्तविक खशी से उतना
*💐💐जीवन का पासवर्ड💐💐*
*मेरे मित्र की जुबानी वस्तुस्थिति से परिपूर्ण एक छोटी सी सत्य की धरा पर आधारित कहानी*
*वह मेरे आफिस के दिन की एक साधारण शुरुआत थी ,जब मैं अपने आफिस के कंप्यूटर के सामने बैठा था।*
*"आपके पासवर्ड का समय समाप्त हो गया है," इन निर्देशों के साथ मेरे कंप्यूटर की स्क्रीन पर एक संदेश प्राप्त हुआ। हमें अपनी कंपनी में हर महीने कंप्यूटर का पासवर्ड बदलना पड़ता है।*
*मैं अपने हालिया ब्रेकअप के बाद बहुत उदास था। उसने मेरे साथ जो किया ,उस पर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था और मैं दिन भर यही सोचता रहता था।*
*मुझे एक युक्ति याद आई, जो मैंने अपने पूर्व बॉस से सुनी थी। उन्होंने कहा था, "मैं पासवर्ड का उपयोग अपने जीवन की सोच को बदलने के लिए करता हूँ।"*
*मैं अपनी वर्तमान मनस्थिति में काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था। पासवर्ड बदलने के विचार ने मुझे याद दिलाया कि मुझे अपने हाल के ब्रेकअप के कारण हुए हालात का शिकार नहीं होना चाहिए और मैंने इसके बारे में कुछ करने का निर्णय लिया।*
*मैंने अपना पासवर्ड बनाया - Forgive@her (उसे@माफ कर दो)। मुझे यह पासवर्ड हर दिन कई बार टाइप करना पड़ता था, जब-जब मेरा कंप्यूटर लॉक हो जाता था। हर बार जब मैं दोपहर के भोजन से वापस आता तो मुझे लिखना होता 'उसे@माफ कर दो'।*
*उस सरल क्रिया ने मेरी पूर्व प्रेमिका के बारे में मेरे नजरिये को बदल दिया। सुलह के उस निरंतर स्मरण ने मुझे परिस्थिति को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया और मुझे अपने depression (अवसाद) से बाहर आने में मदद की।*
*अगले महीने सर्वर ने जब मुझे अपना पासवर्ड बदलने की चेतावनी दी, तब तक मैं बहुत हल्का महसूस कर रहा था। एक छोटे से प्रयास का ऐसा चमत्कारी परिणाम पाकर मैं अचम्भित रह गया था और मैंने इस प्रयोग को जारी रखने का निर्णय लिया।*
*अगली बार जब मुझे अपना पासवर्ड बदलना पड़ा तो, मैंने अगले काम के बारे में सोचा जो मुझे करना है। मेरा पासवर्ड Quit@smoking4ever(धूम्रपान@हमेशा के लिए छोड़ दो) बन गया। इसने मुझे अपने धूम्रपान छोड़ने के लक्ष्य का पालन करने के लिए प्रेरित किया और मैं धूम्रपान छोड़ने में सफल हुआ।*
*एक महीने बाद, मेरा पासवर्ड save4trip@europe (बचत@यूरोप भ्रमण) बन गया और तीन महीने में मैं यूरोप जाने में सक्षम हो गया।*
*पासवर्ड बदलने के उस संदेश ने मुझे अपने लक्ष्यों को पूरा करने में मदद की और मुझे प्रेरित और उत्साहित बनाये रखा। कभी-कभी अपना अगला लक्ष्य निर्धारित करना भी मुश्किल होता है, पर इस छोटी सी आदत को बनाए रखने से ये आसान हो गया।*
*कुछ महीनों के बाद, मेरा पासवर्ड था lifeis#beautiful !!! (ज़िन्दगी# खूबसूरत है !!!) और मेरी जिंदगी फिर से बदलने लगी।*
*कहानी का सार यह है कि...आत्मसंवाद महत्वपूर्ण है। जब हम अपने आप से प्रतिबद्ध होते हैं, तो हमें सही दिशा में सोचने की शक्ति मिलती है और हम वास्तविक परिणाम प्राप्त करते हैं।*
*"हम अपने रोज़मर्रा के विचारों से अपना भाग्य बनाते हैं - हमारी इच्छाएं, जो हमें आकर्षित और विकर्षित करती हैं और हमारी पसंद-नापसंद बनती हैं।"*
लिख-लिख भेजत पाती (पत्र-संग्रह)
सम्पादक : नीरज
(कवि गोपालदास नीरज को एक गुजराती लेखिका द्वारा लिखे गए पत्रों का संकलन)
एक साक्षात्कार में कवि नीरज ने बताया कि वर्ष 1952 से 1962 तक का मेरे जीवन का बड़ा काल था, जब उनके जीवन में किसी महिला मित्र ने प्रवेश किया था। उसका नाम न लेकर वह बोले वह गुजराती कहानी लेखिका थीं। जीवन के इन 12 सालों में उसके प्रेम से नीरज को ऊँचाइयाँ मिलीं। उन्होंने कहा कि इसी दौरान उन्होंने सर्वश्रेष्ठ लेखन किया। नीरज कहते हैं कि उसके प्रेम से उनको महान आध्यात्मिक बल और उसके प्यार से आध्यात्मिक दृष्टि मिली। यह पुस्तक उन्हीं पत्रों का संकलन है। यह सभी पत्र अंग्रेजी में हैं जिसका हिन्दी अनुवाद स्वयं नीरज ने ही किया है।
#GopaldasNeeraj
सबकुछ बता दिया तो रवि तो मुझ पर ही बरस पड़ेंगे।”
कमलेश जी समझदार इंसान थे वो जानते थे कि बेटे को पता चलेगा तो वो बहुत नाराज़ होगा और फालतू में उनकी वजह से पति-पत्नी में मन-मुटाव हो जाएगा, पर बेटे की सिर्फ इतनी जिम्मेदारी नहीं होती की पिता को अपने घर में शरण दो बल्कि उसके साथ वक्त बिताना भी जरूरी है और उसकी क्या जरूरतें हैं ये भी तो कभी कभार पूछना जरूरी है लेकिन उसने अपनी पत्नी पर ज्यादा ही भरोसा किया था खैर वो दोनों खुश रहें मेरे लिए इससे बढ़ कर कुछ भी नहीं है।" उन्होंने रवि को कहा कि " बेटा खेत का कुछ जरूरी काम आ गया तो मुझे आज ही गांव निकलना पड़ेगा और हां बेटा एक बात कहनी है कि नौकरी के साथ - साथ अपने पिता के लिए भी वक्त निकालना जरूरी है।
" रवि को समझ में नहीं आया की बाबूजी को कुछ शिकायत है या सचमुच में किसी काम से जा रहें और वो भी अचानक। बाबू जी ! " आप रहेंगे कहां? घर तो रहा नहीं। रवि थोड़ा चिंतित था। बेटा! " गांव में अभी वो घर है जो हम सभी भाइयों का था जिसमें तुम्हारे चाचा जी रहते हैं वहीं रहूंगा" कमलेश जी ने अपने समान बांधे और रवि ने गाड़ी भेज दिया था स्टेशन के लिए।
रवि के मन को झकझोर गई थी बाबू जी की वो लाइन आखिर क्या तकलीफ़ थी उनको कि उन्होंने मुझे बिना बताए ही इतना बड़ा निर्णय ले लिया था। गांव में रहना कोई बुराई नहीं है लेकिन अचानक से जाना क्या वजह हो सकती है। दिन भर काम में मन ही नहीं लगा और उसने निर्णय लिया की सुबह की गाड़ी से वो गांव जाएगा
और बाबूजी के दिल का हाल जरूर जानना चाहेगा। वो इतना भी क्या व्यस्त हो गया था कि उसने बाबू जी को वक्त ही नहीं दिया। शाम को घर आने के बाद उसने कविता से कहा कि " मुझे दफ्तर के काम से कुछ दिनों के लिए जाना है।" रवि! ” मैं अकेले सबकुछ कैसे संभालूंगी.... तुम मुझे भी साथ ले चलो थोड़ी आउटिंग भी हो जाएगी और बाबूजी भी नहीं हैं तो कोई बंधन भी नहीं है।
" बंधन.... बाबू जी के रहने पर क्या बंधन था कविता... तुम मुझे सच सच बताना की बाबूजी तुम्हारी वजह से तो नहीं गए हैं घर छोड़कर? तुमने मेरे पीछे से कैसा बर्ताव किया है उनके साथ?" चोर की दाढ़ी में तिनका होता ही है। कविता को लगा कि बाबूजी ने उनके प्रति बर्ताव को जरूर बताया है और वो उबल पड़ी कि," मैं तो थक गई थी
उनके रोज - रोज के नखरे से। रोज ही खाने में मीन-मेख निकाला करते थे और पता है आज तो उन्होंने खाने की थाली ही वापस कर दी।" रवि को समझते देर नहीं लगी थी कि जरूर बाबू जी के सम्मान को ठेस लगी है
तभी उन्होंने खाना नहीं खाया। कविता!” तुमने एक बार भी जरूरी नहीं समझा की मुझे फोन करके बताने की बाबूजी बिना खाए-पिए घर से गए हैं। मैं कल ही गांव जा रहा हूं और तभी लौटूंगा जब बाबूजी मेरे साथ आने को तैयार होंगे और हां उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा है पर मैं उनसे जरुर जानना चाहूंगा कि बात क्या हुई थी।”
कविता के पांव के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी। उसके सामने अपनी गलतियों की माफी मांगने और उनको सुधारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।” ग़लती मेरी है तो सुधारूंगी भी मैं ही... मैं भी चलूंगी बाबू जी को वापस लाने “कविता ने कहा। दूसरे दिन सभी लोग गांव के लिए रवाना हो गए थे। उधर बाबू जी ने पहले से ही सारे खेत का सौदा कर लिया था और बेचने की तैयारी में कचहरी जा ही रहे थे कि देखा रवि और बहू दोनों गांव में।
बाबू जी !” मुझे माफ कर दीजिए कविता पांव पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी "। रवि भी माफी मांगने लगा..." मेरी सारी गलती है की मैंने आपका अच्छी तरह से ख्याल नहीं रखा। मुझे भी माफ कर दीजिएगा बाबू जी।” कोई बात नहीं बेटा" गलतियां उसको कहते हैं जो अनजाने में होती हैं और जो जानबूझ कर की जाए वो गलती नहीं होती है। बुढ़ापे में क्या चाहिए एक इंसान को 'मान सम्मान की रोटी' और मेरी थाली में जो भोजन परोसा जाता था और उसके साथ कविता के ताने उसको हजम करने की ताकत अब नहीं रही बेटा। मैं सारी जमीन -जायदाद बेचकर किसी आश्रम में चला जाऊंगा और हां तुम्हारे बच्चों के नाम सारा पैसा करूंगा क्योंकि कल तुम्हारे सा ऐसा व्यवहार ना हो।”
बाबू जी!” मुझे कुछ नहीं चाहिए अगर एक मौका देना चाहते हैं तो घर वापस चलिए और मैं वादा करता हूं कि आपको मेरे पिता होने के सम्मान में मैं कोई कमी नहीं आने दूंगा।” कविता ने भी वादा किया और जमीन का कोई भी टुकड़ा नहीं बिका बल्कि एक घर गांव में भी बनाया गया जिसमें छुट्टी में सभी आते और मिलजुल प्यार से रहते। कविता ने बाबूजी के सम्मान में कभी कमी नहीं आने दी और रवि ऑफिस से आते बाबू जी के साथ कुछ वक्त बिताया करता था और उनकी हर जरूरतों का खुद ख्याल रखता था।
पगला घोड़ा/एवम् इन्द्रजित (नाटक) – बादल सरकार
#Play
पिता को पत्र – फ्रैंज़ काफ़्का
#FranzKafka
स्मृति की रेखाएं – महादेवी वर्मा
#MahadeviVerma
सूफ़ी संत रूमी - सूफ़ियाना कलाम
#Rumi
आज से क़रीब आठ सौ वर्ष पहले जन्मे रूमी ने धर्म, देश और काल की सभी बाधाओं को लांघ कर अपनी रुबाइयों और ग़ज़लों से ऐसा सूफीवाद फैलाया कि वे संसार के सभी देशों में, विशेषकर अमेरिका में, सबसे अधिक पढ़े जाने वाले कवि माने जाते हैं। उनका सूफ़ियाना कलाम सैकड़ों वर्षों से लोकप्रिय है। उनके शब्दों ने विभिन्न संस्कृतियों वाले पाठकों के मन को एक समान छुआ है। आध्यात्मिक प्रेम के सहज अतिरेक और उसके वैभव से जितना समृद्ध हमें रूमी ने किया है, उतना और कोई नहीं कर सका है।
प्रस्तुत संकलन में वे ही रचनाएँ चुनी गई हैं, जिनमें मौलिक रचनाओं का स्पंदन है तथा जो गहरे विवेक का सौन्दर्य और रसास्वादन हमें देती हैं।
तारीख़ में औरत – अशोक पाण्डे
( बेमिसाल स्त्रियों की दास्तानें )
#WomenLiterature
औरत ने कुदरत को सँवारकर रखने में अपनी हिस्सेदारी निभाई क्योंकि उसका जन्म ही सृजन के लिये हुआ था। उसने युद्ध नहीं रचे। उसे इसकी फ़ुरसत ही नहीं थी। तमाम तरह की विभीषिकाओं के बीच और उनके गुज़र जाने के बाद भी उसने जीवन के बीज बोए। इसके लिये उसे कभी किसी अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता नहीं रही। यह और बात है कि न जाने कब से पिलाई जाती रही त्याग, ममता और श्रद्धा की घुट्टियों ने उसके अस्तित्व को इस कदर बांधा कि वह आज तक इन्हीं छवियों में मुक्ति तलाशती आ रही है।
बहुत मुमकिन है आपने इस किताब में आने वाली औरतों में से अनेक के नाम न सुने हों। जीवन की भयानक त्रासदियों से गुज़रकर वे टूटीं, गिरीं और फिर उठकर खड़ी हुईं। ज़रूरी नहीं कि उन्हें किसी के सामने ख़ुद को किसी तरह साबित ही करना था लेकिन उन्होंने ज़िंदगी चुनी। उनमें से एक-एक हमारे ही भीतर लुक-छुपकर बैठी है, हमारे-आपके आसपास की औरत है। इस औरत ने बड़े एहतियात से तमाम शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संघर्षों के बीच अपनी राह बनाई है। अशोक पाण्डे इसी औरत का हाथ थाम लेते हैं।
—स्मिता कर्नाटक
मौत की किताब – ख़ालिद जावेद
#KhalidJawed #Novel
“...दुनिया जगह ही ऐसी है, यह बिल्कुल ख़ाली है। तमाम संभावनाओं से ख़ाली, इसमें कुछ भी नहीं है। मुझे इस बात का शिद्दत से एहसास है कि मैं अपनी मर्ज़ी से तो यहां नहीं आया था। मैं तो दुनिया में इस तरह उड़ेल दिया गया था, जैसे मिट्टी के एक बदरंग लोटे से पानी। और जो अब यहां लगातार गंदला होता जा रहा है। गंदला और मैला होते जाने के अलावा मेरे बस में कुछ भी नहीं था।”