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" ये सच है जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे" हम कुछ भी अच्छा या बुरा कर्म करते हैं उसका असर हमारे परिवार पर हमेशा पड़ता है और कहते हैं कि अपने कर्म इतना अच्छा करो कि कोई बुरा भला कहे की कर्म का फल मिलेगा तो अच्छा ही मिलेगा क्योंकि हमारे कर्म अच्छे हैं और हां हमारे बुजुर्गों का सम्मान करना जरूरी है।
उन्होंने कितनी तकलीफ़ से हमें पाला पोसा है और अब हमारी बारी है उनका ख्याल रखने की। वो घर किस काम जहां अपनों के लिए एक कोना ना हो।
पापा जी!” जो कुछ बना है चुपचाप खा लिया करिए। ये रोज – रोज आपके नखरे उठाने के लिए मैं नहीं बैठीं हूं... एक तो दिन भर काम करो ऊपर से इनके नखरे झेलो... कविता बड़बड़ाती हुई कमरे से बाहर निकल गई। सुबह के नाश्ते का वक्त था और कविता ने कड़क सी थोड़ी जली रोटी सूखी सब्जी के साथ परोसी थी।
कमलेश जी ने सिर्फ इतना ही कहा था कि,” बहू इस उम्र दांत भी साथ नहीं देता थोड़ी मुलायम रोटी दिया करो नहीं तो थोड़ा दूध दे दो उसी में भिगोकर कर खा लूंगा।” ये आए दिन के किस्से बन गए थे। थाली में खाने लायक खाना कभी कभार ही होता था। नकली दांत थे और पेट भी कमजोर हो ही जाता है इस उम्र में तो कभी दलिया, उपमा कुछ मुलायम सा बन जाए तो स्वाद भी बदल जाता है और खाने में आराम रहता
है, लेकिन खाने को दो वक्त रोटी भी सम्मान की नहीं परोसी जाती थी उनकी थाली में ऐसा लगता था कि किसी बेजुबान के सामने खाना डाल दिया गया हो । करते भी क्या कमलेश जी बेटे की जिद्द पर गांव वाला घर बेचकर दिया था और तब बेटे ने उसी से शहर में ये घर खरीदा था। शाम को टहलने निकलते कमलेश जी तो पार्क में, जहां उनके कई मित्र बन चुके थे मुलाकात हो जाती और थोड़ी गपशप हो जाती थी। बुढ़ापे की बातें कभी कल की सुखद यादों में चली जाती कभी भविष्य की चिंताओं की ओर खींच लिया करती थी। आज कमलेश बाबू थोड़े उदास से लग रहे थे। रंजन बाबू को समझ में आ रहा था कि कोई तो बात है?
उन्होंने जानने की कोशिश की तो कमलेश बाबू ने तबीयत खराब होने का बहाना बना दिया क्योंकि चौराहे पर इज्जत उछालना यानी अपने ही घर की बदनामी थी और जितने मुंह उतनी बातें। पता नहीं कौन किस बात को कैसे लेगा और कैसे परोसेगा तोड़ मरोड़ कर ।
फिर अपनी परवरिश पर भी तो सवाल उठता की... कैसे संस्कार दिए हैं अपनी औलाद को जो पिता की परवाह ही नहीं करता है। उसके खाने पीने और दवाइयां भी रहमो-करम पर चलती हैं। जल्दी ही पार्क से लौट आए थे कमलेश बाबू।
रात के भोजन के वक्त उन्होंने बेटे से बात करनी चाही तो बहू ने बात काटते हुए कहा कि " पापा जी दिनभर की भागदौड़ के बाद इनको चैन की दो रोटी तो खाने दिया करिए, बातें तो बाद में होती रहेगी।” सिर झुकाकर खाना खाया और अपने कमरे में चले गए कमलेश जी। उनके आंखों के सामने पुराने दिनों की यादें ताजा होने लगी थी
कि "कैसे ललीता जी एक - एक गर्म रोटी खिलातीं थी पूरे परिवार को और किसी को एक रोटी खाने का मन हो तो उसे प्यार से दो खिला देती। मां अन्नपूर्णना का आशीर्वाद था उन पर खाने में स्वाद तो था ही और दिल लगा कर सब की पसंद का ध्यान में रखती थीं। यही बेटा जिसके नखरे उठाते नहीं थकती थीं एक सब्जी ना खाने पर तुरंत दूसरी बनाया करती थीं।
इस उम्र में आपका हमसफर जब छोड़कर चला जाता है तो जिंदगी के सारे रंगों को भी अपने साथ ले जाता है। एक परछाई की तरह उन्होंने कितना ख्याल रखा था सभी का। सचमुच हम सबने उनकी कद्र नहीं की थी तब।” आंखें नम हो गई थी और ललीता जी की फोटो पर हांथ फेरते बोल पड़े थे..” ये कैसा साथ निभाया तुमने, अपने साथ मुझे भी ले जाती...
जिल्लत की रोटी खाने के बजाय मैं मर क्यों नहीं जाता।” उनको अहसास हुआ कि जैसे ललीता जी कह रहीं हों कि आप वापस गांव चले जाइए जी... इससे ज्यादा ख्याल तो हमारा नौकर रामू आपका रख लेगा। दुखी होने की कोई जरूरत नहीं है अभी आपके हांथ पांव सलामत हैं और अपनी खेती -बाड़ी है वहां। कमलेश जी की आंखें खुली तो उनको लगा कि सचमुच रोज तिल - तिल कर क्यों मरना।
जब तक जिंदगी है आखिर सांस तक सम्मान से जीना चाहिए और मौत का क्या आंखें बंद तो कौन से रिश्ते, तुरंत ही बिस्तर से जमीन पर लिटा दिया जाता है' बॉडी' बोल कर।
अब उनकी सारी उलझनें सुलझ गई थी। नई सुबह ने उनके मन में नए जोश भर दिया था। बहू नाश्ता लेकर आई तो थाली माथे से लगा कर बोले... बहू!” ये खाना वापस ले जाओ।”” क्या हुआ बाबूजी? खाना नहीं खाना था तो पहले ही बता देते। पैसे की बरबादी अलग और कौन खायेगा ये?" एक ही सांस में कविता बोली जा रही थी।
बहू” 'इज्जत की सूखी रोटी 'भी बहुत होती और बेइज्जती का पकवान किसी काम का नहीं होता है। आज तुम खाना इस खाने को और सोचना जरुर की हो सकता है ऐसी थाली तुम्हारे बच्चे भी तुम्हें दे सकते हैं और एक बात कह रहा हूं कि सबके कर्म सामने आते ही हैं एक ना एक दिन। उस दिन के लिए तुम भी तैयार रहना।
आखिर क्या चाहिए था मुझे दो वक्त की रोटी सम्मान के साथ और वो भी तुम ऐसे परोसती हो कि कोई जानवर भी ना खाए ऐसे खाने को। मैंने फैसला ले लिया है कि मैं अब यहां नहीं रहूंगा और हां मैंने गांव की टिकट करा लिया है और मैं आज शाम को निकल रहा हूं। रही बात खाने की तो बाहर कुछ खा लूंगा तुम्हें कल से कोई परेशानी नहीं होगी मेरी वजह से।" कविता के तो होश उड़ गए थे कि पति रवि को पता चलेगा तो क्या कहेगी और अभी तक तो वो बाबू जी को भी रवि से ज्यादा बात नहीं करने देती थी और बाबूजी ने
छंद है यह फूल (कविता-संग्रह) – अज्ञेय
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एक चिथड़ा सुख — निर्मल वर्मा
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वे दिन — निर्मल वर्मा
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मैक्सिम गोर्की जन्मशती अंक (सोवियत दर्पण)
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कल सुनना मुझे – धूमिल
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चांद का मुंह टेढ़ा है (कविता-संग्रह)
– गजानन माधव मुक्तिबोध
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मेरी कहानियां – निर्मल वर्मा
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मधुशाला – हरिवंशराय ‘बच्चन’
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The Diary of a Young Girl
Book by Anne Frank का हिन्दी अनुवाद।
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रेनर मारिया रिल्के की विश्व-विख्यात कृति Letter to A Poet का हिन्दी अनुवाद। #Rilke
रेनर मारिया रिल्के का नाम बीसवीं सदी के महान कवियों में शुमार है। रिल्के ने एक अज्ञात युवा कवि को दस पत्र लिखे। ये पत्र विश्व-साहित्य की अनमोल धरोहर बन गए। मैत्री-भाव से लिखे गए इन पत्रों में जीवन की कुछ सादी-सी बातें हैं, जो पाठक के मन के धरातल को किंचित उन्नत कर देती हैं।
एक दुनिया समानांतर (कहानी-संग्रह)
– राजेन्द्र यादव द्वारा सम्पादित
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निर्मला — मुंशी प्रेमचन्द
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दूरदर्शन की प्रस्तुति और गुलज़ार द्वारा निर्देशित स्त्री-जीवन पर केन्द्रित उपन्यास ‘निर्मला’ पर आधारित धारावाहिक:
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सबकुछ बता दिया तो रवि तो मुझ पर ही बरस पड़ेंगे।”
कमलेश जी समझदार इंसान थे वो जानते थे कि बेटे को पता चलेगा तो वो बहुत नाराज़ होगा और फालतू में उनकी वजह से पति-पत्नी में मन-मुटाव हो जाएगा, पर बेटे की सिर्फ इतनी जिम्मेदारी नहीं होती की पिता को अपने घर में शरण दो बल्कि उसके साथ वक्त बिताना भी जरूरी है और उसकी क्या जरूरतें हैं ये भी तो कभी कभार पूछना जरूरी है लेकिन उसने अपनी पत्नी पर ज्यादा ही भरोसा किया था खैर वो दोनों खुश रहें मेरे लिए इससे बढ़ कर कुछ भी नहीं है।" उन्होंने रवि को कहा कि " बेटा खेत का कुछ जरूरी काम आ गया तो मुझे आज ही गांव निकलना पड़ेगा और हां बेटा एक बात कहनी है कि नौकरी के साथ - साथ अपने पिता के लिए भी वक्त निकालना जरूरी है।
" रवि को समझ में नहीं आया की बाबूजी को कुछ शिकायत है या सचमुच में किसी काम से जा रहें और वो भी अचानक। बाबू जी ! " आप रहेंगे कहां? घर तो रहा नहीं। रवि थोड़ा चिंतित था। बेटा! " गांव में अभी वो घर है जो हम सभी भाइयों का था जिसमें तुम्हारे चाचा जी रहते हैं वहीं रहूंगा" कमलेश जी ने अपने समान बांधे और रवि ने गाड़ी भेज दिया था स्टेशन के लिए।
रवि के मन को झकझोर गई थी बाबू जी की वो लाइन आखिर क्या तकलीफ़ थी उनको कि उन्होंने मुझे बिना बताए ही इतना बड़ा निर्णय ले लिया था। गांव में रहना कोई बुराई नहीं है लेकिन अचानक से जाना क्या वजह हो सकती है। दिन भर काम में मन ही नहीं लगा और उसने निर्णय लिया की सुबह की गाड़ी से वो गांव जाएगा
और बाबूजी के दिल का हाल जरूर जानना चाहेगा। वो इतना भी क्या व्यस्त हो गया था कि उसने बाबू जी को वक्त ही नहीं दिया। शाम को घर आने के बाद उसने कविता से कहा कि " मुझे दफ्तर के काम से कुछ दिनों के लिए जाना है।" रवि! ” मैं अकेले सबकुछ कैसे संभालूंगी.... तुम मुझे भी साथ ले चलो थोड़ी आउटिंग भी हो जाएगी और बाबूजी भी नहीं हैं तो कोई बंधन भी नहीं है।
" बंधन.... बाबू जी के रहने पर क्या बंधन था कविता... तुम मुझे सच सच बताना की बाबूजी तुम्हारी वजह से तो नहीं गए हैं घर छोड़कर? तुमने मेरे पीछे से कैसा बर्ताव किया है उनके साथ?" चोर की दाढ़ी में तिनका होता ही है। कविता को लगा कि बाबूजी ने उनके प्रति बर्ताव को जरूर बताया है और वो उबल पड़ी कि," मैं तो थक गई थी
उनके रोज - रोज के नखरे से। रोज ही खाने में मीन-मेख निकाला करते थे और पता है आज तो उन्होंने खाने की थाली ही वापस कर दी।" रवि को समझते देर नहीं लगी थी कि जरूर बाबू जी के सम्मान को ठेस लगी है
तभी उन्होंने खाना नहीं खाया। कविता!” तुमने एक बार भी जरूरी नहीं समझा की मुझे फोन करके बताने की बाबूजी बिना खाए-पिए घर से गए हैं। मैं कल ही गांव जा रहा हूं और तभी लौटूंगा जब बाबूजी मेरे साथ आने को तैयार होंगे और हां उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा है पर मैं उनसे जरुर जानना चाहूंगा कि बात क्या हुई थी।”
कविता के पांव के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी। उसके सामने अपनी गलतियों की माफी मांगने और उनको सुधारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।” ग़लती मेरी है तो सुधारूंगी भी मैं ही... मैं भी चलूंगी बाबू जी को वापस लाने “कविता ने कहा। दूसरे दिन सभी लोग गांव के लिए रवाना हो गए थे। उधर बाबू जी ने पहले से ही सारे खेत का सौदा कर लिया था और बेचने की तैयारी में कचहरी जा ही रहे थे कि देखा रवि और बहू दोनों गांव में।
बाबू जी !” मुझे माफ कर दीजिए कविता पांव पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी "। रवि भी माफी मांगने लगा..." मेरी सारी गलती है की मैंने आपका अच्छी तरह से ख्याल नहीं रखा। मुझे भी माफ कर दीजिएगा बाबू जी।” कोई बात नहीं बेटा" गलतियां उसको कहते हैं जो अनजाने में होती हैं और जो जानबूझ कर की जाए वो गलती नहीं होती है। बुढ़ापे में क्या चाहिए एक इंसान को 'मान सम्मान की रोटी' और मेरी थाली में जो भोजन परोसा जाता था और उसके साथ कविता के ताने उसको हजम करने की ताकत अब नहीं रही बेटा। मैं सारी जमीन -जायदाद बेचकर किसी आश्रम में चला जाऊंगा और हां तुम्हारे बच्चों के नाम सारा पैसा करूंगा क्योंकि कल तुम्हारे सा ऐसा व्यवहार ना हो।”
बाबू जी!” मुझे कुछ नहीं चाहिए अगर एक मौका देना चाहते हैं तो घर वापस चलिए और मैं वादा करता हूं कि आपको मेरे पिता होने के सम्मान में मैं कोई कमी नहीं आने दूंगा।” कविता ने भी वादा किया और जमीन का कोई भी टुकड़ा नहीं बिका बल्कि एक घर गांव में भी बनाया गया जिसमें छुट्टी में सभी आते और मिलजुल प्यार से रहते। कविता ने बाबूजी के सम्मान में कभी कमी नहीं आने दी और रवि ऑफिस से आते बाबू जी के साथ कुछ वक्त बिताया करता था और उनकी हर जरूरतों का खुद ख्याल रखता था।
पगला घोड़ा/एवम् इन्द्रजित (नाटक) – बादल सरकार
#Play
पिता को पत्र – फ्रैंज़ काफ़्का
#FranzKafka
स्मृति की रेखाएं – महादेवी वर्मा
#MahadeviVerma
सूफ़ी संत रूमी - सूफ़ियाना कलाम
#Rumi
आज से क़रीब आठ सौ वर्ष पहले जन्मे रूमी ने धर्म, देश और काल की सभी बाधाओं को लांघ कर अपनी रुबाइयों और ग़ज़लों से ऐसा सूफीवाद फैलाया कि वे संसार के सभी देशों में, विशेषकर अमेरिका में, सबसे अधिक पढ़े जाने वाले कवि माने जाते हैं। उनका सूफ़ियाना कलाम सैकड़ों वर्षों से लोकप्रिय है। उनके शब्दों ने विभिन्न संस्कृतियों वाले पाठकों के मन को एक समान छुआ है। आध्यात्मिक प्रेम के सहज अतिरेक और उसके वैभव से जितना समृद्ध हमें रूमी ने किया है, उतना और कोई नहीं कर सका है।
प्रस्तुत संकलन में वे ही रचनाएँ चुनी गई हैं, जिनमें मौलिक रचनाओं का स्पंदन है तथा जो गहरे विवेक का सौन्दर्य और रसास्वादन हमें देती हैं।
तारीख़ में औरत – अशोक पाण्डे
( बेमिसाल स्त्रियों की दास्तानें )
#WomenLiterature
औरत ने कुदरत को सँवारकर रखने में अपनी हिस्सेदारी निभाई क्योंकि उसका जन्म ही सृजन के लिये हुआ था। उसने युद्ध नहीं रचे। उसे इसकी फ़ुरसत ही नहीं थी। तमाम तरह की विभीषिकाओं के बीच और उनके गुज़र जाने के बाद भी उसने जीवन के बीज बोए। इसके लिये उसे कभी किसी अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता नहीं रही। यह और बात है कि न जाने कब से पिलाई जाती रही त्याग, ममता और श्रद्धा की घुट्टियों ने उसके अस्तित्व को इस कदर बांधा कि वह आज तक इन्हीं छवियों में मुक्ति तलाशती आ रही है।
बहुत मुमकिन है आपने इस किताब में आने वाली औरतों में से अनेक के नाम न सुने हों। जीवन की भयानक त्रासदियों से गुज़रकर वे टूटीं, गिरीं और फिर उठकर खड़ी हुईं। ज़रूरी नहीं कि उन्हें किसी के सामने ख़ुद को किसी तरह साबित ही करना था लेकिन उन्होंने ज़िंदगी चुनी। उनमें से एक-एक हमारे ही भीतर लुक-छुपकर बैठी है, हमारे-आपके आसपास की औरत है। इस औरत ने बड़े एहतियात से तमाम शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संघर्षों के बीच अपनी राह बनाई है। अशोक पाण्डे इसी औरत का हाथ थाम लेते हैं।
—स्मिता कर्नाटक
मौत की किताब – ख़ालिद जावेद
#KhalidJawed #Novel
“...दुनिया जगह ही ऐसी है, यह बिल्कुल ख़ाली है। तमाम संभावनाओं से ख़ाली, इसमें कुछ भी नहीं है। मुझे इस बात का शिद्दत से एहसास है कि मैं अपनी मर्ज़ी से तो यहां नहीं आया था। मैं तो दुनिया में इस तरह उड़ेल दिया गया था, जैसे मिट्टी के एक बदरंग लोटे से पानी। और जो अब यहां लगातार गंदला होता जा रहा है। गंदला और मैला होते जाने के अलावा मेरे बस में कुछ भी नहीं था।”
#MannuBhandari #Story
अन्य कहानियां यहां उपलब्ध हैं – https://hindikahani.hindi-kavita.com/HK-Mannu-Bhandari.php
कबिरा खड़ा बजार में (नाटक) – भीष्म साहनी
#BhishamSahni #Play #Kabir
छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान
#PrabhaKhetan #WomenLiterature
#Novel
मोहन राकेश श्रेष्ठ कहानियां
(कमलेश्वर द्वारा लिखित मेरा हमदम: मेरा दोस्त)
#MohanRakesh #Story
गोदान — मुंशी प्रेमचन्द
#MunshiPremchand #Novel
दूरदर्शन की प्रस्तुति और गुलज़ार द्वारा निर्देशित प्रेमचन्द की अमर कृति ‘गोदान’ पर आधारित धारावाहिक:
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सेवासदन — मुंशी प्रेमचन्द
#MunshiPremchand #Novel